〽️मैदाने
जंग में शहीद हर तरह से ज़ख़्मी होता है कभी हाथ कटता है, कभी पांव घायल
होता है, कभी उस के सीने में नेज़ा दाखिल किया जाता है, ख़ून का फव्वारा
जारी होता है, कभी गर्दन कट के अलग हो जाती है और शहीद ख़ून में नहा कर
ज़मीन पर गिर जाता है जिस से बज़ाहिर यह मालूम होता है कि उस को सख़्त
तक्लीफ व अज़िय्यत होती है लेकिन हक़ीक़त यह है कि उस को बहुत मामूली सी
तकलीफ होती है और उसे उन ज़ख्मों का पूरा ऐहसास नहीं होता।
मुख़्बिरे सादिक़ सल्लल्लाहु तआला अलैहि व सल्लम इरशाद फ़रमाते हैं: शहीद क़त्ल की सिर्फ इतनी ही
तक्लीफ महसूस करता है जितनी कि तुम चुटकी भरने या चींवटी के काटने की तक्लीफ महसूस करते हो।
मुख़्बिरे सादिक़ सल्लल्लाहु तआला अलैहि व सल्लम इरशाद फ़रमाते हैं: शहीद क़त्ल की सिर्फ इतनी ही
तक्लीफ महसूस करता है जितनी कि तुम चुटकी भरने या चींवटी के काटने की तक्लीफ महसूस करते हो।
#(तिर्मिज़ी, मिश्कातः33)
मुम्किन है कोई कहे कि यह कैसे हो सकता है कि शहीद के हाथ पांव काट दिये गए और उसकी गर्दन भी जुदा कर दी गई मगर उसको सिर्फ इतनी तक्लीफ हुई जितनी चींवटी काटने या चुटकी भरने से होती है।
तो इस शुब्हा का जवाब यह है कि शहीद से यह शहीदे हक़ मुराद है जिस के दिल में अल्लाह और उस के रसूल की मुहब्बत इस दर्जा पैदा हो गई हो कि उस का दिल चाहता है कि एक नहीं बल्कि करोड़ों जानें हों तो मैं सब को अपने महबूब पर क़ुर्बान कर दूं।
मुम्किन है कोई कहे कि यह कैसे हो सकता है कि शहीद के हाथ पांव काट दिये गए और उसकी गर्दन भी जुदा कर दी गई मगर उसको सिर्फ इतनी तक्लीफ हुई जितनी चींवटी काटने या चुटकी भरने से होती है।
तो इस शुब्हा का जवाब यह है कि शहीद से यह शहीदे हक़ मुराद है जिस के दिल में अल्लाह और उस के रसूल की मुहब्बत इस दर्जा पैदा हो गई हो कि उस का दिल चाहता है कि एक नहीं बल्कि करोड़ों जानें हों तो मैं सब को अपने महबूब पर क़ुर्बान कर दूं।
आला हज़रत अज़ीमुल बरकत रहमतुल्लाहि तआला अलैह फरमाते हैं:
करूं तेरे नाम पे जां फिदा न बस एक जां दो जहां फिदा।
दो जहां से भी नहीं जी भरा करूं क्या करोरों जहां नहीं।।
जैसे डॉक्टर मरीज़ को दवा सुंघा देता है फिर उस के जिस्म को चीरता और फाड़ता है, हड्डियां तोड़ता है और टांके लगाता है मगर चूंकि दवा का असर उस पर ग़ालिब होता है इस लिये मरीज़ को कोई तक्लीफ नहीं महसूस होती। बिल्कुल इसी तरह वह शहीदे हक़ कि जिस के दिल में अल्लाह व रसूल की मुहब्बत ग़ालिब हो गई तो उस का जिस्म कटता है, हड्डियां टूटती हैं, ख़ून बहता है और गर्दन जुदा होती है मगर उसे तक्लीफ का ऐहसास नहीं होता।
करूं तेरे नाम पे जां फिदा न बस एक जां दो जहां फिदा।
दो जहां से भी नहीं जी भरा करूं क्या करोरों जहां नहीं।।
जैसे डॉक्टर मरीज़ को दवा सुंघा देता है फिर उस के जिस्म को चीरता और फाड़ता है, हड्डियां तोड़ता है और टांके लगाता है मगर चूंकि दवा का असर उस पर ग़ालिब होता है इस लिये मरीज़ को कोई तक्लीफ नहीं महसूस होती। बिल्कुल इसी तरह वह शहीदे हक़ कि जिस के दिल में अल्लाह व रसूल की मुहब्बत ग़ालिब हो गई तो उस का जिस्म कटता है, हड्डियां टूटती हैं, ख़ून बहता है और गर्दन जुदा होती है मगर उसे तक्लीफ का ऐहसास नहीं होता।
📕»» ख़ुत्बाते मोहर्रम, पेज: 24-25
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🖌पोस्ट क्रेडिट - शाकिर अली बरेलवी रज़वी व अह्-लिया मोहतरमा
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