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और गोया कि यह हुसैनी दिन हो गया, और बे शक़ ऐसा होना ही चाहिए, लेकिन मज़हबे इस्लाम एक सीधा सच्चा सन्जीदगी और शराफ़त वाला मज़हब है और उसकी हदें मुकर्रर हैं ।
लिहाजा इस में जो भी हो सब मज़हब और शरीअ़त के दाइरे में रह कर हो तभी वह इस्लामी बुजुर्गो की यादगार कहलायेगी और जब हमारा कोई भी तरीका मज़हब की लगाई चहार दीवारी से बाहर निकल गया तो वह ग़ैर इस्लामी और हमारी बुजुर्ग शख़्सियतों के लिए बाइसे बदनामी हो गया ।
हम जैसा करेंगे हमें देख कर दूसरे मज़हबों के लोग यही समझेंगे कि इन के बुजुर्ग भी ऐसा करते होंगे, क्योंकि क़ौम अपने बुजुर्गो और पेशवाओं का तआरुफ़ होती है,
हम अगर नमाज़े पढ़ेगे कुरआन की तिलावत करेंगे,
जूए शराब गाने बजाने और तमाशों से बच कर ईमान दार, शरीफ़ और
जब हम इस्लाम के ज़िम्मेदार ठेकेदार बन कर इस्लाम और इस्लामी बुजुर्गो के नाम पर ग़ैर इन्सानी हरकतें नाच कूद
और तमाशे करेंगे तो यक़ीनन जिन्होंने इस्लाम का मुतालअ नहीं किया है उन की नज़र में हमारे मज़हब का ग़लत तआरुफ़ होगा और फिर कोई क्यों मुसलमान बनेगा।
हुसैनी दिन यानी दस मुहर्रम के साथ भी कुछ लोगों ने यही सब किया, और इमाम हुसैन के किरदार को भूल गए, और इस दिन को खेल तमाशों ग़ैर शरई रसूम नाच गानों, मेलों ठेलों और तफ़रीहों का दिन बना डाला।
📕 मुह़र्रम में क्या जाइज़,क्या नाजाइज़, सफ़हा न०- 5
🖌️पोस्ट क्रेडिट ~ एस-अली।औवैसी
🔴इस पोस्ट के दीगर पार्ट के लिए क्लिक करिये ⬇
https://MjrMsg.blogspot.com/p/muharram-me-kya-jayiz.html
और गोया कि यह हुसैनी दिन हो गया, और बे शक़ ऐसा होना ही चाहिए, लेकिन मज़हबे इस्लाम एक सीधा सच्चा सन्जीदगी और शराफ़त वाला मज़हब है और उसकी हदें मुकर्रर हैं ।
लिहाजा इस में जो भी हो सब मज़हब और शरीअ़त के दाइरे में रह कर हो तभी वह इस्लामी बुजुर्गो की यादगार कहलायेगी और जब हमारा कोई भी तरीका मज़हब की लगाई चहार दीवारी से बाहर निकल गया तो वह ग़ैर इस्लामी और हमारी बुजुर्ग शख़्सियतों के लिए बाइसे बदनामी हो गया ।
हम जैसा करेंगे हमें देख कर दूसरे मज़हबों के लोग यही समझेंगे कि इन के बुजुर्ग भी ऐसा करते होंगे, क्योंकि क़ौम अपने बुजुर्गो और पेशवाओं का तआरुफ़ होती है,
हम अगर नमाज़े पढ़ेगे कुरआन की तिलावत करेंगे,
जूए शराब गाने बजाने और तमाशों से बच कर ईमान दार, शरीफ़ और
जब हम इस्लाम के ज़िम्मेदार ठेकेदार बन कर इस्लाम और इस्लामी बुजुर्गो के नाम पर ग़ैर इन्सानी हरकतें नाच कूद
और तमाशे करेंगे तो यक़ीनन जिन्होंने इस्लाम का मुतालअ नहीं किया है उन की नज़र में हमारे मज़हब का ग़लत तआरुफ़ होगा और फिर कोई क्यों मुसलमान बनेगा।
हुसैनी दिन यानी दस मुहर्रम के साथ भी कुछ लोगों ने यही सब किया, और इमाम हुसैन के किरदार को भूल गए, और इस दिन को खेल तमाशों ग़ैर शरई रसूम नाच गानों, मेलों ठेलों और तफ़रीहों का दिन बना डाला।
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