〽️आख़िरी
खत जो हानी बिन हानी सुबेई और सईद बिन अब्दुल्लाह हनफी के बदस्त (हाथों)
हज़रत इमाम हुसैन रदिअल्लाहु तआला अन्हु को पहुँचा, उस के बाद आप ने कूफा
वालों को लिखा कि तुम लोगों के बहुत से ख़ुतूत हम तक पहुंचे जिन के मज़ामीन
से हम मुत्तला हुए, तुम लोगों के जज़्बात और अक़ीदत व मुहब्बत का लिहाज़
करते हुए बर वक्त हम अपने भाई चचा के बेटे मख़्सूस व मोअतमद मुस्लिम बिन
अक़ील को कूफा भेज रहे हैं, अगर इन्हों ने लिखा कि कूफा के हालात साज़गार
हैं तो इन्शा अल्लाहु तआला मैं भी तुम लोगों के पास बहुत जल्द चला आऊंगा। #(तबरीः2/178)
हज़रत सदरुल अफाज़िल मौलान सैयद मुहम्मद नईमुद्दीन साहब मुरादाबादी रहमतुल्लाहि अलैह तहरीर फ़रमाते हैं कि अगर्चे इमाम की शहादत की ख़बर मशहूर थी और कूफियों की बे वफाई का पहले भी तज्रिबा हो चुका था मगर जब यज़ीद बादशाह बन गया और उस की हुकूमत व सल्तनत दीन के लिये ख़तरा थी और इस लिये उस की बैअत ना रवा थी और वह तरह-तरह की तदबीरों और हीलों से चाहता था कि लोग उस की बैअत करें, इन हालात में कूफियों का ब-पासे मिल्लत (समाज का लिहाज़ करते हुए) यज़ीद की बैअत से दस्त कशी करना और हज़रत इमाम से तालिबे बैअत होना इमाम पर लाज़िम करता था कि उन की दरख़्वास्त कबूल
फ़रमाएं। जब एक क़ौम ज़ालिम व फासिक की बैअत पर राज़ी न हो और साहिबे इस्तिहक़ाक़ अहल से दरख़्वास्ते बैअत करे, उस पर अगर वह उन की इस्तिद्आ क़बूल न करे तो इसके मअना यह होते हैं कि वह उस क़ौम को उस जाबिर ही के हवाले करना चाहता है। इमाम अगर उस वक़्त कूफियों की दरख़्वास्त क़बूल न फ़रमाते तो बारगाहे इलाही में कूफियों के इस मुतालेबा का इमाम के पास क्या जवाब होता कि हम हर चन्द दरपै हुए मगर इमाम बैअत के लिये राज़ी न हुए, बदी'न् वजह (इसी वजह से) हमें यज़ीद के जुल्म व तशद्दुद से मजबूर होकर उस की बैअत करनी पड़ी। अगर इमाम हाथ बढ़ाते तो हम उनपर जानें फिदा करने के लिय हाज़िर थे। यह मस्अला ऐसा दर पेश आया जिस का हल बजुज़ इसके और कुछ न था कि हज़रत इमाम उन की दावत पर लब्बैक फ़रमाएं। अगर्चे अकाबिर सहाबए किराम हज़रत इब्ने अब्बास, हज़रत इब्ने उमर, हज़रत जाबिर, हज़रत अबू सईद और हज़रत अबू वाकिद लैसी वग़ैरहुम हज़रत इमाम की इस राय से मुत्तफिक़ न थे और उन्हें कूफियों के अहद व मीसाक़ का ऐतबार न था। इमाम की मुहब्बत और शहादते इमाम की शोहरत इन सब के दिलों में इख़्तिलाज पैदा कर रही थी, गो कि यह यक़ीन करने की भी कोई वजह न थी कि शहादत का यही वक़्त है और इसी सफर में यह मरहला दर पेश होगा लेकिन अंदेशा मानेअ था। हज़रत इमाम के सामने मस्अले की यह सूरत दर पेश थी कि इस इस्तिदआ को रद करने के लिये उज़्रे शरई क्या है। इधर ऐसे जलीलुल क़दर सहाबा के शदीद इस्-रार का लिहाज़, उधर अहले कूफा की इस्तिदआ रद फ़रमाने के लिये कोई शरई उज़्र न होना हज़रत इमाम के लिये निहायत पेचीदा मस्अला था, जिस का हल बजुज़ इसके कुछ नज़र न आया कि पहले हज़रत इमाम मुस्लिम को भेजा जाए, अगर कूफियों ने बद अहदी व बेवफाई की तो उज़्रे शरई मिल जाएगा और अगर वह अपने अहेद पर क़ाइम रहे तो सहाबा को तसल्ली दी जा सकेगी। #(सवानेहे करबला:87)
📕»» ख़ुत्बाते मोहर्रम, पेज: 397-399
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🖌पोस्ट क्रेडिट - शाकिर अली बरेलवी रज़वी व अह्-लिया मोहतरमा
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हज़रत सदरुल अफाज़िल मौलान सैयद मुहम्मद नईमुद्दीन साहब मुरादाबादी रहमतुल्लाहि अलैह तहरीर फ़रमाते हैं कि अगर्चे इमाम की शहादत की ख़बर मशहूर थी और कूफियों की बे वफाई का पहले भी तज्रिबा हो चुका था मगर जब यज़ीद बादशाह बन गया और उस की हुकूमत व सल्तनत दीन के लिये ख़तरा थी और इस लिये उस की बैअत ना रवा थी और वह तरह-तरह की तदबीरों और हीलों से चाहता था कि लोग उस की बैअत करें, इन हालात में कूफियों का ब-पासे मिल्लत (समाज का लिहाज़ करते हुए) यज़ीद की बैअत से दस्त कशी करना और हज़रत इमाम से तालिबे बैअत होना इमाम पर लाज़िम करता था कि उन की दरख़्वास्त कबूल
फ़रमाएं। जब एक क़ौम ज़ालिम व फासिक की बैअत पर राज़ी न हो और साहिबे इस्तिहक़ाक़ अहल से दरख़्वास्ते बैअत करे, उस पर अगर वह उन की इस्तिद्आ क़बूल न करे तो इसके मअना यह होते हैं कि वह उस क़ौम को उस जाबिर ही के हवाले करना चाहता है। इमाम अगर उस वक़्त कूफियों की दरख़्वास्त क़बूल न फ़रमाते तो बारगाहे इलाही में कूफियों के इस मुतालेबा का इमाम के पास क्या जवाब होता कि हम हर चन्द दरपै हुए मगर इमाम बैअत के लिये राज़ी न हुए, बदी'न् वजह (इसी वजह से) हमें यज़ीद के जुल्म व तशद्दुद से मजबूर होकर उस की बैअत करनी पड़ी। अगर इमाम हाथ बढ़ाते तो हम उनपर जानें फिदा करने के लिय हाज़िर थे। यह मस्अला ऐसा दर पेश आया जिस का हल बजुज़ इसके और कुछ न था कि हज़रत इमाम उन की दावत पर लब्बैक फ़रमाएं। अगर्चे अकाबिर सहाबए किराम हज़रत इब्ने अब्बास, हज़रत इब्ने उमर, हज़रत जाबिर, हज़रत अबू सईद और हज़रत अबू वाकिद लैसी वग़ैरहुम हज़रत इमाम की इस राय से मुत्तफिक़ न थे और उन्हें कूफियों के अहद व मीसाक़ का ऐतबार न था। इमाम की मुहब्बत और शहादते इमाम की शोहरत इन सब के दिलों में इख़्तिलाज पैदा कर रही थी, गो कि यह यक़ीन करने की भी कोई वजह न थी कि शहादत का यही वक़्त है और इसी सफर में यह मरहला दर पेश होगा लेकिन अंदेशा मानेअ था। हज़रत इमाम के सामने मस्अले की यह सूरत दर पेश थी कि इस इस्तिदआ को रद करने के लिये उज़्रे शरई क्या है। इधर ऐसे जलीलुल क़दर सहाबा के शदीद इस्-रार का लिहाज़, उधर अहले कूफा की इस्तिदआ रद फ़रमाने के लिये कोई शरई उज़्र न होना हज़रत इमाम के लिये निहायत पेचीदा मस्अला था, जिस का हल बजुज़ इसके कुछ नज़र न आया कि पहले हज़रत इमाम मुस्लिम को भेजा जाए, अगर कूफियों ने बद अहदी व बेवफाई की तो उज़्रे शरई मिल जाएगा और अगर वह अपने अहेद पर क़ाइम रहे तो सहाबा को तसल्ली दी जा सकेगी। #(सवानेहे करबला:87)
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