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हम जैसा करेंगे हमें देख कर दूसरे मज़हबों के लोग यही समझेंगे कि इन के बुजुर्ग भी ऐसा करते होंगे, क्योंकि क़ौम अपने बुजुर्गो और पेशवाओं का तआरुफ़ होती है,

हम अगर नमाज़े पढ़ेगे कुरआन की तिलावत करेंगे,

जूए शराब गाने बजाने और तमाशों से बच कर ईमान दार, शरीफ़ और भले आदमी बन कर रहेंगे, तो देखने वाले कहेंगे की जब यह इतने अच्छे हैं तो इनके बुज़ुर्ग कितने अच्छे होंगे

और जब हम इस्लाम के ज़िम्मेदार ठेकेदार बन कर इस्लाम और इस्लामी बुजुर्गो के नाम पर ग़ैर इन्सानी हरकतें नाच कूद और तमाशे करेंगे तो यक़ीनन जिन्होंने इस्लाम का मुतालअ नहीं किया है उन की नज़र में हमारे मज़हब का ग़लत तआरुफ़ होगा और फिर कोई क्यों मुसलमान बनेगा।

हुसैनी दिन यानी दस मुहर्रम के साथ भी कुछ लोगों ने यही सब किया, और इमाम हुसैन के किरदार को भूल गए,
और इस दिन को खेल तमाशों ग़ैर शरई रसूम नाच गानों, मेलों ठेलों और तफ़रीहों का दिन बना डाला।

और ऐसा लगने लगा कि जैसे इस्लाम भी मआ़ज़ल्लाह दूसरे मजहबों की तरह खेल तमाशों तफ़रीहों और रंग रिलियों वाला मज़हब है।

📕»» मुह़र्रम में क्या जाइज़? क्या नाजाइज़? सफ़ा: 5-6
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🖌️पोस्ट क्रेडिट ~ एस-अली।औवैसी & शाकिर अली बरेलवी

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