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वाकेआत की तहकीक खुद वाकेआत के ज़माने में जैसी हो सकती है, मुश्किल है कि बाद को वैसी तहकीक हो खास कर जब कि वाकया इतना अहम हो मगर हैरत है कि अह्-ले बैते अत्हार के इस इमामे जलील का कत्ल उसको कातिल की खबर गैर को तो क्या होती। खुद हज़रत इमाम हुसैन रदिअल्लाहु तआला अन्हु को पता नहीं है। यही तारीखें बताती हैं कि वह अपने बरादरे मुअज़म से जहर देने वाले का नाम दरयाफ्त फरमाते हैं इस से साफ जाहिर है कि हजरत इमाम हुसैन रदिअल्लाहु तआला अन्हु को ज़हर देने वाले का इल्म न था।
अब रही यह बात कि हज़रत इमाम हसन रदिअल्लाहु अन्हु किसी का नाम लेते। उन्होंने ऐसा नहीं किया तो अब जअदा को कातिल होने के लिए मुऐयन करने वाला कौन है। हज़रत इमाम हुसैन रदिअल्लाहु तआला अन्हु को या इमामैन के साहबजादों में से किसी साहब को अपनी आखिरे हयात तक जअदा की जहर खुरानी का कोई सुबूत न पहुँचा न उन में से किसी ने उस पर शरई मुवाख़ज़ा किया।
एक और पहलू इस वाक्या का खास तौर पर काबिले लिहाज़ है वह यह कि हज़रत इमाम की बीवी को गैर के साथ साज़बाज़ करने की बुरी तोहमत के साथ मुत्तहम किया जाता है। यह एक बदतरीन तबर्रा है। अजीब नहीं कि इस हिकायत की बुनियाद खार्जियों की इफ्तराअत हों जबकि सही और मोतबर ज़राए से यह मालूम है कि हज़रत इमाम हसन रदिअल्लाहु तआला अन्हु कसीरुत्तज़व्वुज (ज्यादा शादी करने वाले) थे और आप ने सौ के करीब निकाह किए और तलाकें दीं।
अक्सर एक दो रात ही के बाद तलाक दे देते थे और हज़रत
अमीरुल-मोमिनीन अली-ए-मुर्तज़ा कर्रमल्लाहु तआला वज्हुहुल-करीम बार-बार एलान फरमाते थे कि इमाम हसन की आदत है यह तलाक दे दिया करते हैं कोई अपनी लड़की उनके साथ न ब्याहे। मगर मुसलमान बीवियाँ और उनके वालिदैन यह तमन्ना करते थे कि कनीज़ होने का सर्फ़ हासिल हो जाए उसी का असर था कि हज़रत इमाम हसन जिन औरतों को तलाक दे दिया करते थे वह अपनी बाकी जिन्दगी हजरत इमाम की मुहब्बत में शैदायाना गुजार देतीं और उनकी हयात का लम्हा-लम्हा हज़रत इमाम की याद और मुहब्बत में गुज़रता था। ऐसी हालत में यह बात बहुत बईद है कि इमाम की बीवी हजरत इमाम के फैज़े सौहबत की कद्र न करे और यज़ीद पलीद की तरफ एक बुरे लालच से इमामे जलील के क़त्ल जैसे शख्त जुर्म का इर्तिकाब करे।
वल्लाहु आलम बेहकीक़तल-हाल!
📕»» सवानेह करबला, पेज: 59
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🖌पोस्ट क्रेडिट - शाकिर अली बरेलवी रज़वी व अह्-लिया मोहतरमा
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वाकेआत की तहकीक खुद वाकेआत के ज़माने में जैसी हो सकती है, मुश्किल है कि बाद को वैसी तहकीक हो खास कर जब कि वाकया इतना अहम हो मगर हैरत है कि अह्-ले बैते अत्हार के इस इमामे जलील का कत्ल उसको कातिल की खबर गैर को तो क्या होती। खुद हज़रत इमाम हुसैन रदिअल्लाहु तआला अन्हु को पता नहीं है। यही तारीखें बताती हैं कि वह अपने बरादरे मुअज़म से जहर देने वाले का नाम दरयाफ्त फरमाते हैं इस से साफ जाहिर है कि हजरत इमाम हुसैन रदिअल्लाहु तआला अन्हु को ज़हर देने वाले का इल्म न था।
अब रही यह बात कि हज़रत इमाम हसन रदिअल्लाहु अन्हु किसी का नाम लेते। उन्होंने ऐसा नहीं किया तो अब जअदा को कातिल होने के लिए मुऐयन करने वाला कौन है। हज़रत इमाम हुसैन रदिअल्लाहु तआला अन्हु को या इमामैन के साहबजादों में से किसी साहब को अपनी आखिरे हयात तक जअदा की जहर खुरानी का कोई सुबूत न पहुँचा न उन में से किसी ने उस पर शरई मुवाख़ज़ा किया।
एक और पहलू इस वाक्या का खास तौर पर काबिले लिहाज़ है वह यह कि हज़रत इमाम की बीवी को गैर के साथ साज़बाज़ करने की बुरी तोहमत के साथ मुत्तहम किया जाता है। यह एक बदतरीन तबर्रा है। अजीब नहीं कि इस हिकायत की बुनियाद खार्जियों की इफ्तराअत हों जबकि सही और मोतबर ज़राए से यह मालूम है कि हज़रत इमाम हसन रदिअल्लाहु तआला अन्हु कसीरुत्तज़व्वुज (ज्यादा शादी करने वाले) थे और आप ने सौ के करीब निकाह किए और तलाकें दीं।
अक्सर एक दो रात ही के बाद तलाक दे देते थे और हज़रत
अमीरुल-मोमिनीन अली-ए-मुर्तज़ा कर्रमल्लाहु तआला वज्हुहुल-करीम बार-बार एलान फरमाते थे कि इमाम हसन की आदत है यह तलाक दे दिया करते हैं कोई अपनी लड़की उनके साथ न ब्याहे। मगर मुसलमान बीवियाँ और उनके वालिदैन यह तमन्ना करते थे कि कनीज़ होने का सर्फ़ हासिल हो जाए उसी का असर था कि हज़रत इमाम हसन जिन औरतों को तलाक दे दिया करते थे वह अपनी बाकी जिन्दगी हजरत इमाम की मुहब्बत में शैदायाना गुजार देतीं और उनकी हयात का लम्हा-लम्हा हज़रत इमाम की याद और मुहब्बत में गुज़रता था। ऐसी हालत में यह बात बहुत बईद है कि इमाम की बीवी हजरत इमाम के फैज़े सौहबत की कद्र न करे और यज़ीद पलीद की तरफ एक बुरे लालच से इमामे जलील के क़त्ल जैसे शख्त जुर्म का इर्तिकाब करे।
वल्लाहु आलम बेहकीक़तल-हाल!
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