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ख़ुद को मुसलमान कहलाने वालों में एक नाम निहाद इस्लामी फ़िर्का ऐसा भी है कि उन के यहां नमाज़ रोज़े वगैरह अह़कामे शरअ़ और दीन दारी की बातों को तो कोई ख़ास अहमियत नहीं दी जाती बस मुहर्रम आने पर रोना पीटना, चीखना चिल्लाना, कपड़े फाड़ना, मातम व सीना कोबी करना ही उन का मज़हब है गोया कि उन के नज़दीक अल्ल्लाह तआ़ला ने अपने रसूल को इन्ही कामों को करने और सिखाने को भेजा था,*और इन्ही सब बेकार बातों का नाम इस्लाम है।
मज़हबे अहले सुन्नत वजमाअत में कुछ हिन्दुस्तान के पुराने ग़ैर मुस्लिमों जिन के यहां धर्म के नाम पर जूये खेले जाते हैं, शराबें पी जाती हैं, जगह जगह मेले लगा कर मर्दों, औरतों को जमा कर के ग़ैर इन्सानी हरकतें की जाती हैं, उनकी सोहबतों में रह कर उनके पास बैठने, उठने, रहने, सहने के नतीजे में खेल तमाशे और वाहियात भरे मेलों को ही इस्लाम समझने लगे, और बांस काग़ज़ और पन्नी के मुजस्समे बना कर उन पर चढ़ावे चढ़ाने लगे।
दर असल होता यह है कि ऐसे काम कि जिन में लोगों को ख़ूब मज़ा और दिलचस्पी आये, तफ़रीह और चटख़ारे
मिलें उनका रिवाज अगर कोई डाले तो वह बहुत जल्दी पड़ जाता है और क़ौम बहुत जल्दी उन्हें अपना लेती है।
और जब धरम के ठेकेदार उनमें सवाब बता देते हैं तो अ़वाम उन्हें और भी मज़ा ले कर करने लगते हैं कि यह ख़ूब रही, रंगरलियां भी हो गई और सवाब भी मिला, तफ़रीह और दिल लगी भी हो गई खेल तमाशे भी हो गये और जन्नत का काम, क़ब्र का आराम भी हो गया ।
📕»» मुह़र्रम में क्या जाइज़? क्या नाजाइज़? सफ़ा: 6-7
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🖌️पोस्ट क्रेडिट ~ एस-अली।औवैसी & शाकिर अली बरेलवी
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https://MjrMsg.blogspot.com/p/moharram-me-jayiz-najayiz.html
ख़ुद को मुसलमान कहलाने वालों में एक नाम निहाद इस्लामी फ़िर्का ऐसा भी है कि उन के यहां नमाज़ रोज़े वगैरह अह़कामे शरअ़ और दीन दारी की बातों को तो कोई ख़ास अहमियत नहीं दी जाती बस मुहर्रम आने पर रोना पीटना, चीखना चिल्लाना, कपड़े फाड़ना, मातम व सीना कोबी करना ही उन का मज़हब है गोया कि उन के नज़दीक अल्ल्लाह तआ़ला ने अपने रसूल को इन्ही कामों को करने और सिखाने को भेजा था,*और इन्ही सब बेकार बातों का नाम इस्लाम है।
मज़हबे अहले सुन्नत वजमाअत में कुछ हिन्दुस्तान के पुराने ग़ैर मुस्लिमों जिन के यहां धर्म के नाम पर जूये खेले जाते हैं, शराबें पी जाती हैं, जगह जगह मेले लगा कर मर्दों, औरतों को जमा कर के ग़ैर इन्सानी हरकतें की जाती हैं, उनकी सोहबतों में रह कर उनके पास बैठने, उठने, रहने, सहने के नतीजे में खेल तमाशे और वाहियात भरे मेलों को ही इस्लाम समझने लगे, और बांस काग़ज़ और पन्नी के मुजस्समे बना कर उन पर चढ़ावे चढ़ाने लगे।
दर असल होता यह है कि ऐसे काम कि जिन में लोगों को ख़ूब मज़ा और दिलचस्पी आये, तफ़रीह और चटख़ारे
मिलें उनका रिवाज अगर कोई डाले तो वह बहुत जल्दी पड़ जाता है और क़ौम बहुत जल्दी उन्हें अपना लेती है।
और जब धरम के ठेकेदार उनमें सवाब बता देते हैं तो अ़वाम उन्हें और भी मज़ा ले कर करने लगते हैं कि यह ख़ूब रही, रंगरलियां भी हो गई और सवाब भी मिला, तफ़रीह और दिल लगी भी हो गई खेल तमाशे भी हो गये और जन्नत का काम, क़ब्र का आराम भी हो गया ।
📕»» मुह़र्रम में क्या जाइज़? क्या नाजाइज़? सफ़ा: 6-7
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