--------------------------------------------------------
ज़िक्रे शहादत:-
हज़रत सय्यद इमाम हुसैन रद़िअल्लाहु तआ़ला अन्हु और दूसरे हज़राज अहले बैअत किराम का ज़िक्र नज़्म में या नस्र में करना और सुनना यकीनन जाइज़ है, और बाइसे खैर व बरकत व नुजूले रहमत है लेकिन इस सिलसिले में नीचे लिखी हुई चन्द बातों को ध्यान में रखना ज़रूरी है-
✍️ जि़क्रे शहादत में सही रिवायात और सच्चे वाक़िआत ब्यान किए जायें, आज कल कुछ पेशावर मुक़र्रिरों और शाइरों ने अ़वाम को खुश करने और तक़रीरों को जमाने के लिए अ़जीब-अजीब किस्से और अनोखी निराली हिकायात और गढ़ी हुई कहानियाँ और करामात बयान करना शुरू कर दिया है, क्योंकि अ़वाम को ऐसी बातें सुनने में मज़ा आता है, और आज-कल के अकसर मुक़र्रिरों को अल्लाह व रसूल से ज्यादा अ़वाम को खुश करने की फ़िक्र रहती है, और बज़ाहिर सच से झूठ में मज़ा ज़्यादा है और जलसे ज़्यादा तर अब मज़ेदारियों के लिए ही होते है।
आला हज़रत मौलाना शाह अहमद रज़ा रहमतुल्लाहि तआ़ला अलैहि फंरमाते हैं-
शहादत नामे नज़म या नस्र जो आज-कल अ़वाम में राइज हैं अकसर रिवायाते बातिला व बे सरोपा से ममलू और अकाज़ीब मोजूआ पर मुश्तमिल हैं। ऐसे बयान का पढ़ना और सुनना, वह शहादत नामा हो, ख़्वाह कुछ और, मज्लिसे मीलादे मुबारक में हो ख़्वाह कही और मुतलक़न हराम व नाजाइज़ हैं।
#(फ़तावा रज़विया जिल्द-24, सफा-514, मतबुआ रज़ा फ़ाउन्डेशन लाहौर)
और उसी किताब के सफ़ा-522 पर इतना और है- यूँही मरसिये, ऐसी चीज़ों का पढ़ना सुनना सब गुनाह व
हराम है।
हदीस पाक में है, रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु तआ़ला अलैहि वसल्लम ने मरसियों से मना फ़रमाना।
✍️ ज़िक्रे शहादत का मक़सद सिर्फ वाक़िआत को सुन कर इबरत व नसीहत हासिल करना हो और साथ ही साथ स्वालिहीन के ज़िक्र की बरकत हासिल करना ही हो, रोने और रुलाने के लिए वाक़िआते करबला बयान करना नाजाइज़ व गुनाह है, इस्लाम में 3 दिन से ज़्यादा मौत का सोग जाईज़ नहीं।
आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा खाँ बरेलवी फ़रमाते हैं-
शरीअ़त में औरत को शौहर की मौत पर चार महीने दस दिन सोग मनाने का हुक्म दिया है, औरों की मौत के तीसरे दिन तक इजाज़त दी है, बाकी हराम है, और हर साल सोग की तजदीद तो अस़लन किसी के लिए हलाल नहीं।
#(फ़तावा रज़विया जिल्द-24, सफहा-495)
✍️ और रोना रुलाना सब राफज़ियों के तौर तरीके हैं क्योंकि उनकी किस्मत में ही यह लिखा हुआ है, राफ़्ज़ी ग़म मनाते हैं और ख़ारज़ी खुशी मनाते हैं और सुन्नी वाक़िआते करबला से नसीहत व इबरत हासिल करते हैं और दीन की ख़ातिर कुरबानियाँ देने और मुसीबतों पर सब्र करने का सबक लेते हैं और उनके ज़िक्र से बरकत और फ़ैज़ पाते हैं।
हां अगर उनकी मुसीबतों को याद कर के ग़म हो जाये या आंसू निकल आयें तो यह मुहब्बत की पहचान है। मतलब यह है कि एक होता है ग़म मनाना और ग़म करना, और एक होता है ग़म हो जाना, ग़म मनाना और करना नाजाइज़ है और ध्यान आने पर खुद ब खुद हो जाये तो जाइज़ है।
📕»» मुह़र्रम में क्या जाइज़? क्या नाजाइज़? सफ़ा: 15-17
--------------------------------------------------------
🖌️पोस्ट क्रेडिट ~ एस-अली।औवैसी & शाकिर अली बरेलवी
📌 इस उनवान के दूसरे पोस्ट पढ़ने के लिए क्लिक करिये ⬇
https://MjrMsg.blogspot.com/p/moharram-me-jayiz-najayiz.html
ज़िक्रे शहादत:-
हज़रत सय्यद इमाम हुसैन रद़िअल्लाहु तआ़ला अन्हु और दूसरे हज़राज अहले बैअत किराम का ज़िक्र नज़्म में या नस्र में करना और सुनना यकीनन जाइज़ है, और बाइसे खैर व बरकत व नुजूले रहमत है लेकिन इस सिलसिले में नीचे लिखी हुई चन्द बातों को ध्यान में रखना ज़रूरी है-
✍️ जि़क्रे शहादत में सही रिवायात और सच्चे वाक़िआत ब्यान किए जायें, आज कल कुछ पेशावर मुक़र्रिरों और शाइरों ने अ़वाम को खुश करने और तक़रीरों को जमाने के लिए अ़जीब-अजीब किस्से और अनोखी निराली हिकायात और गढ़ी हुई कहानियाँ और करामात बयान करना शुरू कर दिया है, क्योंकि अ़वाम को ऐसी बातें सुनने में मज़ा आता है, और आज-कल के अकसर मुक़र्रिरों को अल्लाह व रसूल से ज्यादा अ़वाम को खुश करने की फ़िक्र रहती है, और बज़ाहिर सच से झूठ में मज़ा ज़्यादा है और जलसे ज़्यादा तर अब मज़ेदारियों के लिए ही होते है।
आला हज़रत मौलाना शाह अहमद रज़ा रहमतुल्लाहि तआ़ला अलैहि फंरमाते हैं-
शहादत नामे नज़म या नस्र जो आज-कल अ़वाम में राइज हैं अकसर रिवायाते बातिला व बे सरोपा से ममलू और अकाज़ीब मोजूआ पर मुश्तमिल हैं। ऐसे बयान का पढ़ना और सुनना, वह शहादत नामा हो, ख़्वाह कुछ और, मज्लिसे मीलादे मुबारक में हो ख़्वाह कही और मुतलक़न हराम व नाजाइज़ हैं।
#(फ़तावा रज़विया जिल्द-24, सफा-514, मतबुआ रज़ा फ़ाउन्डेशन लाहौर)
और उसी किताब के सफ़ा-522 पर इतना और है- यूँही मरसिये, ऐसी चीज़ों का पढ़ना सुनना सब गुनाह व
हराम है।
हदीस पाक में है, रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु तआ़ला अलैहि वसल्लम ने मरसियों से मना फ़रमाना।
✍️ ज़िक्रे शहादत का मक़सद सिर्फ वाक़िआत को सुन कर इबरत व नसीहत हासिल करना हो और साथ ही साथ स्वालिहीन के ज़िक्र की बरकत हासिल करना ही हो, रोने और रुलाने के लिए वाक़िआते करबला बयान करना नाजाइज़ व गुनाह है, इस्लाम में 3 दिन से ज़्यादा मौत का सोग जाईज़ नहीं।
आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा खाँ बरेलवी फ़रमाते हैं-
शरीअ़त में औरत को शौहर की मौत पर चार महीने दस दिन सोग मनाने का हुक्म दिया है, औरों की मौत के तीसरे दिन तक इजाज़त दी है, बाकी हराम है, और हर साल सोग की तजदीद तो अस़लन किसी के लिए हलाल नहीं।
#(फ़तावा रज़विया जिल्द-24, सफहा-495)
✍️ और रोना रुलाना सब राफज़ियों के तौर तरीके हैं क्योंकि उनकी किस्मत में ही यह लिखा हुआ है, राफ़्ज़ी ग़म मनाते हैं और ख़ारज़ी खुशी मनाते हैं और सुन्नी वाक़िआते करबला से नसीहत व इबरत हासिल करते हैं और दीन की ख़ातिर कुरबानियाँ देने और मुसीबतों पर सब्र करने का सबक लेते हैं और उनके ज़िक्र से बरकत और फ़ैज़ पाते हैं।
हां अगर उनकी मुसीबतों को याद कर के ग़म हो जाये या आंसू निकल आयें तो यह मुहब्बत की पहचान है। मतलब यह है कि एक होता है ग़म मनाना और ग़म करना, और एक होता है ग़म हो जाना, ग़म मनाना और करना नाजाइज़ है और ध्यान आने पर खुद ब खुद हो जाये तो जाइज़ है।
📕»» मुह़र्रम में क्या जाइज़? क्या नाजाइज़? सफ़ा: 15-17
--------------------------------------------------------
🖌️पोस्ट क्रेडिट ~ एस-अली।औवैसी & शाकिर अली बरेलवी
📌 इस उनवान के दूसरे पोस्ट पढ़ने के लिए क्लिक करिये ⬇
https://MjrMsg.blogspot.com/p/moharram-me-jayiz-najayiz.html