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वैसे तो बहुत सारे लोगों की अब तक खत्मे क़ुरान बनाम तरावीह खत्म भी हो चुकी होगी और उन्हें मस्जिद ना जाने की आज़ादी भी मिल चुकी होगी मगर दर हक़ीक़त तरावीह रमजान का चांद देखकर शुरू करनी होती है और ईद का चांद देखकर खत्म, तरावीह मर्दो औरत दोनों के लिए सुन्नते मुअक़्क़िदा है और चारों इमामों के नज़दीक 20 रकात है, बुखारी शरीफ की जिस 11 रकात की रिवायत को ग़ैर मुक़ल्लिदीन 8 रकात तरावीह के लिए पेश करता है वो दर असल तरावीह नहीं बल्कि 8 रकात तहज्जुद और 3 रकात वित्र है और हुज़ूर सल्लललाहो तआला अलैहि वसल्लम से ये 11 रकातें पूरी ज़िन्दगी साबित है क्योंकि आप पर तहज्जुद भी फर्ज़ थी, जैसा कि उम्मुल मोमेनीन सय्यदना आइशा सिद्दीक़ा रज़ियल्लाहु तआला अन्हा फरमाती हैं कि

👉रसूल अल्लाह सल्लललाहो तआला अलैहि वसल्लम रमज़ान और ग़ैर रमज़ान में 11 रकात से ज़्यादा अदा नहीं फरमाते थे।

📕»» बुखारी, जिल्द 1, सफह 154
📕»» मुस्लिम, जिल्द 1, सफह 254

इस हदीसे पाक से साफ ज़ाहिर होता है कि अगर ये 8 रकात तरावीह की पढ़ी जा रही थी तो ग़ैर रमज़ान में तरावीह तो है नहीं फिर क्यों हुज़ूर सल्लललाहो तआला अलैहि वसल्लम ग़ैर रमज़ान में भी 8 रकात तरावीह पढ़ रहे हैं तो मानना पड़ेगा कि ये 8 रकात तरावीह नहीं बल्कि तहज्जुद की 8 रकाते हैं और 3 रकात वित्र, फुक़्हा फरमाते हैं कि वित्र वाजिबुल लैल यानि रात की नमाज़ है तो अगर किसी को रात में उठने का यक़ीन हो तो वित्र रात में पढ़ने के लिए मुअख्खर कर दे, तो जब हुज़ूर सल्लललाहो तआला अलैहि वसल्लम पर तहज्जुद फर्ज़ थी और आपको उसे सोकर उठकर पढ़ना ही था तो इसलिए आप हमेशा ईशा के बाद और रमज़ान में तरावीह के बाद वित्र छोड़ देते थे और जब रात को तहज्जुद पढ़ लेते तब वित्र पढ़ते यही राजेह क़ौल है।

▫️ कसीर सहाबये किराम जिनमे हज़रते उमर फ़ारूक़े आज़म, हज़रते मौला अली, हज़रते इमाम हसन, हज़रत अब्दुल्लाह इब्ने अब्बास, हज़रते कअब, हज़रते यज़ीद बिन रूमान, हज़रत सायब बिन यज़ीद रिज़वानुल्लाहि तआला अलैहिम अजमईन से यही मरवी है कि हुज़ूर सल्लललाहो तआला अलैहि वसल्लम व तमाम सहाबा 20
रकात तरावीह ही पढ़ते थे, 20 रकात तरावीह की दलील इन हदीस की किताबों में मौजूद है 👇

📕»» जामेअ तिर्मिज़ी, जिल्द 1, सफह 139
📕»» अबु दाऊद, जिल्द 1, सफह 202
📕»» इब्ने अबी शीबा, जिल्द 2, सफह 393
📕»» सुनन कुबरा, जिल्द 2, सफह 496
📕»» ज़जाजतुल मसाबीह, जिल्द 2, सफह 307
📕»» अब्दुर रज़्ज़ाक़,जिल्द 4, सफह 261
📕»» तिब्रानी,जिल्द 1, सफह 243

हां जमात से तरावीह पढ़ना हुज़ूर सल्लललाहो तआला अलैहि वसल्लम या अबु बक्र सिद्दीक़ रज़ियल्लाहु तआला अन्हु के ज़माने में नहीं था बल्कि इसकी शुरुआत खलीफये दोम हज़रते सय्यदना उमर फारूक़े आज़म रज़ियल्लाहु तआला अन्हु के दौर में आपकी इजाज़त से हुई, वाक़िया ये हुआ कि 👇

एक रोज़ आप रमज़ान शरीफ में मस्जिद तशरीफ ले गए जहां लोग अलग अलग तन्हा अपनी अपनी नमाज़े तरावीह पढ़ रहे थे आपने उन्हें देखकर फरमाया कि मैं मुनासिब समझता हूं कि इन सबको मुत्तहिद कर दूं और फिर हज़रते अबी बिन कअब को इमाम बनाकर जमात से तरावीह पढ़ने का हुक्म दिया और जमात से उन्हें पढ़ते देखकर फरमाया कि "नेअमतिल बिदअते हाज़ेही" यानि कितनी अच्छी बिदअत है ।

📕»» बुखारी, हदीस 2010
📕»» मिरक़ात, जिल्द 1, सफह 179

और पिछले 1400 सालों से मुसलमानो का अमल भी इसी पर रहा जो कि 20 रकात तरावीह के हक़ होने की दलील है एक बात और हर नया काम यानि कि हर बिदअत गुमराही है का रट्टा मारने वाले लोग हज़रते उमर फारूक़े आज़म रज़ियल्लाहु तआला अन्हु का क़ौल देखें कि आप खुद फरमा रहे हैं कि कितनी अच्छी बिदअत है मालूम हुआ कि हर बिदअत गुमराही नहीं और हुज़ूर सल्लललाहो तआला अलैहि वसल्लम का ये फरमाना कि हर बिदअत गुमराही है इससे मुराद ये है कि जो नया काम शरीयत के खिलाफ होगा वो गुमराही होगा और जो नया काम शरीयत की मुखालिफत ना करे तो हरगिज़ वो गुमराही नहीं, बिदअत के बारे में अलग से पोस्ट बनी हुई है फिर कभी इन शा अल्लाह उसे सेंड करूंगा

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🖌️पोस्ट क्रेडिट ~ नौशाद अहमद ज़ेब रज़वी (ज़ेब न्यूज़)

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