〽️हज़रत दानयाल अलैहिस्सलाम एक दिन जंगल में चले जाते थे। आपको एक गुंबद नज़र आया। आवाज़ आई की ऐ दानयाल! इधर आ। दानयाल अलैहिस्सलाम उस गुंबद के पास गए, मालूम हुआ की किसी मक़्बरे का गुंबद है। जब आप मक़्बरे के अन्दर तशरीफ़ ले गए तो देखा बड़ी उम्दा इमारत है और इमारत के बीच एक आलीशान तख़्त बिछा हुआ है। उस पर एक बड़ी लाश पड़ी है। फिर आवाज़ आई की दानयाल! तख़्त के ऊपर आओ। आप ऊपर तशरीफ़ ले गए तो एक लम्बी-चौड़ी तलवार मुर्दे के पहलू में रखी हुई नज़र आई। उस पर ये इबारत लिखी हुई नज़र आई की मैं क़ौमे आद से एक बादशाह हूँ। ख़ुदा ने तेरह(1300) सौ साल की मुझे उम्र अता फ़रमाई। बारह हज़ार मैंने शादियाँ कीं, आठ हज़ार बेटे हुए, ला-तअदाद ख़जाने मेरे पास थे। इस क़द्र नेअमतें लेकर भी मेरे नफ़्स ने ख़ुदा का शुक्र ना किया बल्की उल्टा कुफ़्र करना शुरू किया और ख़ुदाई दअवे करने लगा।

खुदा ने मेरी हिदायत के लिए एक पैग़म्बर को भेजा। हर चन्द उन्होंने मुझे समझाया, मगर मैंने कुछ ना सुना। अंजाम कार वो पैग़म्बर मुझे बद्दुआ दे कर चले गए। हक़ तआला ने मुझ पर और मेरे मुल्क पर क़हेत मुसल्लत कर दिया। जब मेरे मुल्क में कुछ पैदा ना हुआ, तब मैंने दूसरे मुल्कों में हुक्म भेजा की हर एक किस्म का ग़ल्लह और मेवा मेरे मुल्क में भेजा जाए।

बमौजिब मेरे हुक्म के हर किस्म का ग़ल्लह और मेवा मेरे मुल्क में आने लगा, जिस वक़्त वो ग़ल्लह या मेवा मेरे शहर की सरहद में दाखिल होता, फ़ौरन मिट्टी बन जाता और वो सारी मेहनत बेकार जाती और कोई दाना मुझे नसीब ना होता। इसी तरह सात दिन गुज़र गए।

मेरे किले से सारे अहाली, मवाली, बीवियाँ, बच्चे सब भाग गए। मैं तन्हा किले में रह गया। सिवाए फ़ाक़ह के मेरी कोई गिज़ा ना थी।

एक दिन मैं निहायत मजबूर होकर फ़ाक़ह की तकलीफ़ में किले के दरवाज़े पर आया। वहाँ मुझे एक शख़्स नजर आया। जिसके हाथ में कुछ ग़ल्लह के दाने थे जिनको वो खाता चला जाता था। मैंने उस जाने वाले से कहा की एक बड़ा बर्तन भरा हुआ मोतियों का मुझ से ले ले और ये अनाज के दाने मुझे देदे मगर उसने ना सुना और जल्दी से उन दानों को खा कर मेरे सामने से चला गया, अंजाम ये हुआ की इस फ़ाक़ह की तकलीफ़ से मैं मर गया। ये मेरी सरगुज़िश्त है जो शख़्स मेरा हाल सुने वो कभी दुनिया के क़रीब ना आए।

( #सीरत_उल_सालेहीन सफ़ा-79)


🌹सबक़ ~
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ख़ुदा से हर किस्म की नेअमत पाकर फिर उसकी नाशुक्री करना। इन्तेहाई नाआक़्बत अनदेशी है और अल्लाह की नाशुक्री से भूक, फ़ाक़ह, क़हेत और मुख्तलिफ़ किस्म की बलायें नाज़िल होती हैं और ये भी मालूम हुआ के इंसान चाहे कितनी बड़ी उम्र पाए, एक दिन उसने मरना ज़रूर है।

📕»» सच्ची हिकायात ⟨हिस्सा अव्वल⟩, पेज: 116-117, हिकायत नंबर- 97
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🖌पोस्ट क्रेडिट - शाकिर अली बरेलवी रज़वी व अह्-लिया मोहतरमा

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