▫पार्ट -- 28, ✅ जा_अल_हक़ ✅

🕌 आयाते कुरआनिया में: पहली फ़स्ल 🕋
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2). व यकूनर्रसूलू अलैकुम शहीदा और यह रसूल तुम्हारे निगहबान व गवाह हों।

तफ़्सीरे अज़ीज़ी में इसी आयत के मातेहत हैं~

तर्जमा: हुजूर अलैहिस्सलाम अपने नूरे नबुव्वत की वजह से हर दीनदार के दीन को जानते हैं कि दीन के किस दरजा तक पहुंचा है, और उसके ईमान की हक़ीक़त क्या है, और कौन सा हिजाब उसकी तरक्क़ी से माने है, लिहाज़ा हुजूर अलैहिस्सलाम तुम्हारे गुनाहों को और तुम्हारे ईमानी दरजात को और तुम्हारे नेक व बद आमाल और तुम्हारे इख़्लास और निफ़ाक़ को पहचानते हैं, लिहाज़ा उनकी गवाही दुनिया में बहुक्मे शरअ उम्मत के हक़ में क़बूल और वाजिबुल अमल है।

तफ़्सीरे रूहुल_बयान में इसी आयत के मातहत है ~

तर्जमा: यह इस बिना पर है कि कलिमा शहीद में मुहाफ़िज़ और ख़बरदार के माना भी शामिल हैं और इस माना के शामिल करने में इस तरफ़ इशारा है कि किसी को आदिल कहना और सफ़ाई की गवाही देना गवाह के हालात पर बाख़बर होने से हो सकता है और हुजूर अलैहिस्सलाम की मुसलमानों पर गवाही देने के मानी यह हैं कि हुजूर अलैहिस्सलाम हर दीनदार के दीनी मरतबा को पहचानते हैं, पस हुजूर अलैहिस्सलाम मुसलमानों के गुनाहों को उनके ईमान की हकीकत को उनके अच्छे बुरे आमाल को उनके इख़्लास और निफा़क़ वग़ैरह को नूरे हक़ से पहचानते हैं और हुजूर अलैहिस्सलाम की उम्मत भी क़्यामत में सारी उम्मतों के यह हालात जानेगी मगर हुजूर अलैहिस्सलाम के नूर से।

तफ़्सीर ख़ाज़िन में इसी आयत के मातहत है ~

तर्जमा : फिर क़्यामत में हुजूर अलैहिस्सलाम को बुलाया जाएगा और रब तआला हुजूर अलैहिस्सलाम से आपकी

▫पार्ट -- 27, ✅ जा_अल_हक़ ✅

🕌 आयाते कुरआनिया में: पहली फ़स्ल 🕋
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1). व अल्लमा आदमल_अस्माआ कुल्लहा सुम्मा अरज़हुम अलल_मलाइकते और अल्लाह तआला ने आदम को तमाम चीज़ों के नाम सिखाए, फिर सब चीज़ें मलाइका पर पेश कीं।

तफ़्सीर मदारिक में इसी आयत के मातहत है~

हज़रत आदम अलैहिस्सलाम को तमाम चीज़ों के नाम बताने के माना यह हैं कि रब तआला ने उनके वह तमाम जिन्सें दिखा दीं जिसको पैदा किया है और उनको बता दिया कि इसका नाम घोड़ा और उसका नाम ऊँट और इसका नाम फुलां, हज़रत इब्ने अब्बास से मरवी है कि उनको हर चीज़ के नाम सिखा दिए, यहाँ तक कि प्याला और डोई के भी।

तफ़्सीरे ख़ाज़िन में इसी आयत ने यही मज़्मून बयान फ़रमाया, इतना और भी ज्यादा फ़रमाया कहा गया है कि हज़रत आदम अलैहिस्सलाम को तमाम फ़रिश्तों के नाम सिखा दिए और कहा गया है कि उनकी औलाद के नाम, और कहा गया है कि उनको तमाम ज़बानें सिखा दीं।

तफ़्सीरे कबीर में इसी आयत के मातहत है ~

तर्जमा - आदम अलैहिस्सलाम को तमाम चीज़ों के औसाफ़ और उनके हालात सिखा दिए, और यही मशहूर है

▫पार्ट -- 26, ✅ जा_अल_हक़ ✅

🕌 बहस इल्मे ग़ैब 🕋
चौथी फ़स्ल
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जब इल्मे ग़ैब का मुन्किर अपने दावा पर दलील क़ायम करे तो चार बातों का ख्याल रखना ज़रूरी है (इज़ाहतुल_ग़ैब, सफ़ा :4) ~

1). वह आयत क़तईयुद्दलालह हो, जिसके माना में चन्द शक्लें न निकल सकती हों और हदीस हो तो मुतवातिर हो।

2). इस आयत या हदीस से इल्म के अता की नफ़ी हो कि हमने नहीं दिया, या हुजूर अलैहिस्सलाम फ़रमाएं मुझको यह इल्म नहीं दिया गया ।

3). सिर्फ किसी बात का ज़ाहिर न फ़रमाना काफ़ी नहीं, मुम्किन है कि हुजूर अलैहिस्सलाम को इल्म तो हो मगर किसी मस्लेहत से ज़ाहिर न किया हो, इसी तरह हुजूर अलैहिस्सलाम का यह फ़रमाना कि ख़ुदा ही जाने, अल्लाह के सिवा कोई नहीं जानता, या मुझे क्या मालूम, वग़ैरह काफ़ी नहीं, कि यह कलिमात कभी इल्मे ज़ाती की नफ़ी और मुख़ातब को ख़ामोश करने के लिए होते हैं।

4). जिसके लिए इल्म की नफ़ि,, इंकार,, की गई हो वह वाक़या हो और क़्यामत तक का हो, वरना कुल सिफ़ाते

▫पार्ट -- 25, ✅ जा_अल_हक़ ✅

🕌 बहस इल्मे ग़ैब 🕋

तीसरी फ़स्ल: इल्मे ग़ैब के मुतअल्लिक़ अकिदा और इल्मे ग़ैब के मरातिब के बयान में
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इल्मे ग़ैब की तीन सूरतें हैं और इनके अलग अलग अहकाम (अज़ ख़ालिसुल, एतकाद सफ़ा 5) ~

(1). अल्लाह अज़्ज़ा व जल्ल आलिम बिज़्ज़ात है, उसके बग़ैर बताए कोई एक हर्फ़ भी नहीं जान सकता।

(2). हुजूर अलैहिस्सलाम और दीगर अंबिया_ए_किराम को रब तआला ने अपने कुछ ग़ैब का इल्म दिया।

(3). हुजूर अलैहिस्सलाम का इल्म सारी ख़िल्क़त से ज़्यादा है, हज़रत आदम व ख़लील अलैहिस्सलाम और मलकुल, मौत व शैतान भी ख़िल्कत हैं, यह तीन बातें ज़रूरियाते दीन में से हैं, इनका इंकार कुफ्र है।

किस्मे दोम - औलिया_ए_किराम को भी बिल_वास्ता अंबिया_ए_किराम कुछ उलूमे ग़ैब मिलते हैं।

अल्लाह तआला ने हुजूर अलैहिस्सलाम को पांच ग़ैबों में से बहुत से जुज़्इयात का इल्म दिया जो इस क़िस्म दोम का मुन्किर है वह गुमराह और बद मज़हब है कि सैकड़ों अहादीस का इंकार करता है।

क़िस्म सौम - हुजूर अलैहिस्सलाम को क़यामत का इल्म मिला कि कब होगी।

तमाम गुज़िश्ता और आइंदा वाक़यात जो लौहे महफूज में हैं उनका बल्कि उन से भी ज्यादा का इल्म दिया गया।

▫पार्ट -- 24, ✅ जा_अल_हक़ ✅

🕌 बहस इल्मे ग़ैब 🕋

दूसरी फ़स्ल: ज़रूरी फ़ायदों के बयान में
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इल्मे ग़ैब के मसअले में गुफ़्तगू करने से पहले यह चन्द बातें ख़ूब ख्याल में रखी जांए तो बहुत फ़ायदा होगा और बहुत से एतराज़ात ख़ुद_ब_खुद ही दफ़ा हो जाएंगे ---

(1). नफ्से इल्म किसी चीज़ का भी हो बुरा नहीं, हां बुरी बातों का करना या करने के लिए सीखना बुरा है, हां यह हो सकता है कि कुछ इल्म दूसरे इल्मों से ज़्यादा अफ़्ज़ल है जैसे इल्म अक़ाइद, इल्मे शरीअत, इल्मे तसव्वुफ़ दूसरे इल्मों से अफ़्ज़ल हों।

मगर कोई इल्म फ़ी नफ़्सेही बुरा नहीं, जैसे कुछ आयाते कुरआनिया कुछ से ज़्यादा सवाब रखती हैं, कुल हुवल्लाहु में तिहाई कुर आन का सवाब है मगर तब्बत यदा में यह सवाब नहीं (देखो रूहुल, ब्यान) ज़ेरे आयत व लव काना मिन इन्दे ग़ैरिल्लाहि तवजदु फ़ीहि इख़्तिलाफ़न कसीरा लेकिन कोई आयत बुरी नहीं, इसलिए कि अगर 1 कोई बुरा इल्म होता तो ख़ुदा को भी वह हासिल न होता, कि ख़ुदा हर बुराई से पाक है।

(2). और फ़रिश्तों को ख़ुदा की ज़ात व सिफ़ात का इल्म तो था मगर हजरत आदम अलैहिस्सलाम को आलम की सारी अच्छी बुरी चीज़ों का इल्म दिया, और वही इल्म उनकी अफ़्ज़लीयत का सुबूत हुआ, इस इल्म की वजह से वह मलाइका के उस्ताद क़रार पाए, अगर बुरी चीज़ों का इल्म बुरा होता तो हज़रत आदम को यह इल्म देकर उस्ताद न बनाया जाए।

(3). और दुनिया में सबसे बदतर चीज़ कुफ्र व शिर्क, मगर फ़ुक़हा फ़रमाते हैं कि इल्म हसद व बुग़्ज़ और अल्फा़ज कुफ़्रिया व शिर्किया का जानना फ़र्ज है ताकि इससे बचे, इसी तरह जादू सीखना फ़र्ज़ है दफ़ाए जादू के लिए।

शामी के मुक़द्दमा में है-

यानी इल्मे रिया और हसद व हराम और कुफ्रिया कल्मों का सीखना फ़र्ज है,

▫पार्ट -- 23, ✅ जा_अल_हक़ ✅

🕌 बहस इल्मे ग़ैब 🕋
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इसमें एक मुक़द्दमा है और दो बाब और एक ख़ातमा बेमन्नेही व करमेही।

मुक़द्दमा इसमें चन्द फ़स्लें हैं।

पहली फ़स्ल: ग़ैब की तारीफ़ और इसकी क़िस्मों के बयान में

ग़ैब वह छुपी हुई चीज़ है जिसको इंसान न तो आँख, नाक, कान, वग़ैरह हवास से महसूस कर सके और न बिला दलील खुद बखुद अक़्ल में आ सके, लिहाज़ा पंजाब वाले के लिए बम्बई ग़ैब नहीं, क्योंकि वह या तो आँख से देख आया है या सुन कर कह रहा है कि बम्बई भी एक 🌆 शहर है यह हवास से इल्म हुआ, इसी तरह खानों की लज़्ज़तें और उनकी ख़ुश्बू वग़ैरह ग़ैब नहीं क्योंकि यह चीज़ें अगरचे आँख से छुपी हैं मगर दूसरे हवास से मालूम हैं।

जिन्न और मलाइका और जन्नत व दोज़ख़ हमारे लिए इस वक़्त ग़ैब हैं क्योंकि न उनको हवास से मालूम कर सकते हैं हैं और न बिला दलाइल अक़्ल से।

ग़ैब दो तरह का है, एक वह जिस पर कोई दलील क़ाइम हो सके, यानी दलाइल से मालूम हो सके, दूसरे वह जिसको दलील से भी मालूम न कर सकें।

पहले ग़ैब की मिसाल जैसे जन्नत व दोज़ख़ और ख़ुदाए पाक की जात व सिफ़ात कि आलम की चीज़ें और कुरआन की आयात देख कर उनका पता चलता है।

दूसरे ग़ैब की मिसाल जैसे क़यामत का इल्म, कि कब होगी, इंसान कब मरेगा और औरत के पेट में लड़का है या लड़की बदबख़्त है या नेक बख़्त, कि इनको दलाइल से भी मालूम नहीं कर सकते इसी तरह के ग़ैब को मफ़ातीहुल_ग़ैब कहा जाता है और इसको परवरदीगारे आलम ने फरमाया फ़ला युज़हिरु अला ग़ैबिहि अहादन इल्ला मनिर्तज़ा मिर्रुसूलिन

तफ़्सीर बैज़ावी में यूमिनूना बिल_ग़ैबे के मातहत है, ग़ैब से मुराद वह छुपी हुइ चीज़ है जिसको हवास न पा

▫पार्ट -- 22, ✅ जा_अल_हक़ ✅

🕌 पांचवा बाब 🕋

तक़्लीद पर एतराज़ात और जवाबात के बयान में
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क़्यास के माना लुग़त में अंदाज़ा लगाना और शरीअत में किसी फ़रई मसला को असल मसला से इल्लत और हुक्म में मिला देना यानी एक मसला ऐसा दर पेश आ गया जिसका सुबूत कुरआन व हदीस में नहीं मिलता तो उसकी तरह कोई वह मसला लिया जो कुरआन व हदीस में है, इसके हुक्म की वजह मालूम करके यह कहा कि चूंकि वह वजह यहाँ भी है लिहाज़ा उसका हुक्म यह है ।

जैसे किसी ने पूछा कि औरत के साथ इग़लाम करना कैसा है, हमने जवाब दिया कि हालते हैज़ में औरत से जिमा हराम है क्यों, गंदगी की वजह से, और इसमें भी गंदगी है, लिहाज़ा यह भी हराम है ।

किसी ने पूछा कि जिस औरत से किसी के बाप ने ज़िना किया वह उसके लिए हलाल है या नहीं, हमने कहा कि जिस औरत से किसी का बाप निकाह करे वह बेटे को हराम है, वती या जुज़्ईयत की वजह से, लिहाज़ा यह औरत भी हराम है ।

इसको क़्यास कहते हैं, मगर शर्त यह है कि क़्यास करने वाला मुज्तहिद हो, हर कस व नाकस का क़्यास मोतबर नहीं, क़्यास असल में हुक्मे शरीअत को ज़ाहिर करने वाला है, खुद मुस्तक़िल हुक्म का मुसीबत नहीं, यानी कुरआन व हदीस का ही हुक्म होता है, मगर क़्यास उसको यहाँ जा़हिर करता है, क़्यास का सुबूत कुरआन व हदीस व अफ़्आले सहाबा से है ।

कुरआन फरमाता है फ़ातबेरू या ऊलिल, अब्सार तो इबरत लो ऐ निगाह वालो, यानी कुफ़्फ़ार के हाल पर

▫पार्ट -- 21, ✅ जा_अल_हक़ ✅

🕌 पांचवा बाब 🕋

तक़्लीद पर एतराज़ात और जवाबात के बयान में
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सवाल (8) इमामे आज़म को हदीस नहीं आती थी, इसलिए उनकी रिवायात बहुत कम हैं और जो हैं वह सब ज़ईफ़।

जवाब ~ इमाम आज़म बहुत बड़े मुहद्दिस थे, बग़ैर हदीस दानी इस क़दर मसाइल कैसे इस्तिबात (निकल) हो सकते थे उनकी किताब मुसनद अबू हनीफ़ा और इमाम मुहम्मद की किताब मुअत्ता इमाम मुहम्मद से उनकी हदीस दानी मालूम होती है ।

हज़रत सिद्दीक़े अक़बर की रिवायात बहुत कम मिलती हैं।
तो क्या वह मुहद्दिस न थे, कमी रिवायत एहतियात की वजह से है, इमाम साहब की तमाम रिवायात सहीह हैं, क्योंकि उनका ज़माना हुज़ूर से बहुत क़रीब है, बाद में कुछ रिवायात में जुअफ़ पैदा हुआ, बाद का जुअफ़ हज़रत इमाम को नुक़सानदेह नहीं, जिस क़दर सनदें बढ़ी जुअफ़ भी पैदा हुआ।

लतीफ़ा ~ बाज़ लोग यह भी कहते हैं कि तुम कहते हो कि चारों मज़हब हक़ हैं यह किस तरह हो सकता है, हक़ तो सिर्फ एक ही होगा, इमाम अबू हनीफ़ा फरमाते हैं कि इमाम के पीछे सूर_ए_फ़ातिहा पढ़ना मक्रुहे तहरीमी है, इमाम शाफ़ई फरमाते हैं कि वाजिब है तो या तो वाजिब होगी या मक्रुह, दोनों मसले सही किस तरह हो सकते हैं?

जवाब ~ यह है कि हक़ के मानी यहाँ सही या कि वाक़्या के मुवाफ़िक़ नहीं है, बल्कि मतलब यह है कि चारों

▫पार्ट -- 20, ✅ जा_अल_हक़ ✅

🕌 पांचवा बाब 🕋

तक़्लीद पर एतराज़ात और जवाबात के बयान में
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सवाल (5) तक़्लीद में ग़ैर ख़ुदा को अपना हकम बनाना है, और यह शिर्क है, लिहाज़ा तक़्लीदे शख़्सी शिर्क है रब तआला फरमाता है इनिल, हुक्मु इल्ला लिल्लाह नहीं है हुक्म मगर अल्लाह का।

जवाब ~ अगर ग़ैर ख़ुदा को हकम या पंच बनाना शिर्क है, तो हदीस मानना भी शिर्क हुआ, और सारे मुहद्देसीन व मुफ़स्सेरीन मुश्रिक हो गए क्योंकि तिर्मिज़ी, अबू दाऊद व मुस्लिम वग़ैरह हज़रात तो मुक़ल्लिद हैं और इमाम बुख़ारी वग़ैरह मुक़ल्लिदों के शागिर्द, देखो ऐनी शरह बुख़ारी, हमने दीवाने सालिक में इस सवाल का यह जवाब दिया-

जो तेरी तक़्लीद शिर्क होती
मुहद्देसीन सारे होते मुश्रिक।

बुख़ारी मुस्लिम व इब्ने माजा इमाम आज़म अबू हनीफ़ा।
कि जितने फुक़हा मुहद्देसीन हैं तुम्हारे ख़िरमन खूशा चीं हैं।
हों वास्ते से कि बेवसीला इमामा आज़म अबू हनीफ़ा।।

जिस रिवायत में एक फ़ासिक़ रावी आ जाए वह रिवायत ज़ईफ़ या मौज़ू है, तो जिस रिवायत में कोई मुक़ल्रिद आ जाए तो मुश्रिक आ गया, लिहाज़ा वह भी बातिल,

फिर तिर्मिज़ी व अबू दाऊद तो ख़ुद मुक़ल्लिद हैं मुश्रिक हुए, उनकी रिवायत ख़त्म हुई, बुख़ारी वग़ैरह पहले ही ख़त्म हो चुकी कि वह मुश्रिकों के शागिर्द हैं, अब हदीस कहाँ से लाओगे?

कुरआन पाक फ़रमाता है और अगर तुमको मियाँ बीवी के झगड़े का ख़ौफ़ हो तो एक हकम मर्द वालों की तरफ़

▫पार्ट -- 19, ✅ जा_अल_हक़ ✅

🕌 पांचवा बाब 🕋

तक़्लीद पर एतराज़ात और जवाबात के बयान में
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सवाल (3) कुरआने करीम ने तक़्लीद करने वालों की बुराइयां फरमाई हैं फरमाता है उन्होंने अपने पादरियों और जोगियों को अल्लाह के सिवा खुदा बना लिया, फिर अगर तुम में किसी बात का झगड़ा उठे तो उसको अल्लाह और रसूल की तरफ़ रुजू करो और यह कि यही मेरा सीधा रास्ता है तो इस पर चलो और राहें न चलो कि तुमको उसकी राह से जुदा कर देंगी, तो कहेंगे बल्कि हम तो उस पर चलेंगे जिस पर अपने बाप दादा को पाया, इन आयात और इन जैसी दूसरी आयात से मालूम होता है कि अल्लाह व रसूल के हुक्म के सामने इमामों की बात मानना तरीक़_ए_कुफ़्फ़ार है, और सीधा रास्ता एक ही है, चार रास्ता हन्फ़ी, शाफ़ई ,वग़ैरह टेढ़े रास्ते हैं वग़ैरह,

✳️ जवाब~ जिस तक़्लीद की कुरआन करीम ने बुराई फरमाई है उसको हम पहले बाब में ब्यान कर चुके हैं व ला तत्तबेउस सुबुला में यहूदीयत या नस्रानियत वग़ैरह ख़िलाफ़े इस्लाम रास्ते मुराद हैं।

हन्फ़ी, शाफ़ई ,वग़ैरह चन्द रास्ते नहीं, बल्कि एक स्टेशन की चार सड़कें या एक दरिया की चार नहरें हैं, वरना फिर तो ग़ैर मुक़ल्लेदीन की जमाअतें सनाई और ग़ज़्नवी का क्या हुक्म है, चन्द रास्ते होते हैं अक़ाइद बदलने से, चारों मज़्हब के अक़ाइद एक जैसे हैं, सिर्फ आमाल में फुरूई इख़्तिलाफ़ है, जैसा कि खुद सहाब_ए_किराम में

▫पार्ट -- 18, ✅ जा_अल_हक़ ✅

🕌 पांचवा बाब 🕋

तक़्लीद पर एतराज़ात और जवाबात के बयान में
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मसलए तक़्लीद पर मुख़ालिफ़ीन के एतराज़ात दो तरह के हैं, एक वाहियात ताने और तमस्खुर उनके जवाबात ज़रूरी तो नहीं, दूसरे वह जिन से मुक़ल्लेदीन को ग़ैर मुक़ल्लिद धोखा देते हैं, और आम मुक़ल्लेदीन धोखा खा लेते हैं, वह हस्बे ज़ैल हैं।

सवाल (1) ~ सहाब_ए_किराम को किसी की तक़्लीद की ज़रूरत न थी, वह तो हुजूर अलैहिस्सलाम की सोहबत की बरकत से तमाम मुसलमानों के इमाम और पेशवा हैं कि अइम्म_ए_दीन इमाम अबू हनीफ़ा व शाफ़ई वग़ैरह रज़ि अल्लाहु तआला अन्हुमा उनकी पैरवी करते हैं।

मिश्कात बाब फ़ज़ाइलुस्सहाबा सफ़ा- 554, में है ~

अस्हाबी कन्नुजूमे फ़बेअय्यिहिम इक़्तदैतुम इहतदैतूम
मेरे सहाबा सितारों की तरह हैं तुम जिनकी पैरवी करोगे हिदायत पा लोगे

अलैकुम बिसुन्नती व सुन्नतिल_ख़ुलफ़ाए अर्राशिदीन मिश्कात यही बाब,, तुम लाज़िम पकड़ो मेरी और मेरे ख़ुलफ़ा_ए_राशिदीन की सुन्नत को।

यह सवाल तो एसा है जैसे कोई कहे कि हम किसी के उम्मती नहीं, क्योंकि हमारे नबी अलैहिस्सलाम किसी के उम्मती न थे, तो उम्मती न होना सुन्नते रसूलुल्लाह है, इससे यही कहा जाएगा कि हुजूर अलैहिस्सलाम ख़ुद नबी

▫पार्ट -- 17, ✅ जा_अल_हक़ ✅

🕌 दूसरी फ़स्ल तक़्लीदे शख़्सी के बयान में 🕋
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मिश्कात किताबुल_इमारह में बहवाला मुस्लिम है कि हुजूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम फरमाते हैं~

तर्जमा जो तुम्हारे पास आवे हालांकि तुम एक शख्स की इताअत पर मुत्तफ़िक़ हो वह चाहता हो कि तुम्हारी लाठी तोड़ दे और तुम्हारी जमाअत को मुतफ़र्रिक़ कर दे तो उसको कत्ल कर दो! (सफ़ा-320)

इसमें मुराद इमाम और उलमा_ए_दीन हैं क्योंकि हाकिमे वक़्त की इताअत ख़िलाफ़े शरअ में जाइज़ नहीं है।

मुस्लिम ने किताबुल_इमारह में बाब बांधा बाब वजूबे ताअतिल_अमराए फ़ी ग़ैरे मासियतिन.यानी अमीर की इताअत ग़ैर मासियत में वाजिब है इससे मालूम हुआ कि एक ही की इताअत ज़रूरी है।

मिश्कात शरीफ़ किताबुल_बुयूअ़ बाबुल_फ़राइज़ में बरिवायते बुख़ारी है कि हज़रत अबू मूसा अशअरी ने हज़रत इब्ने मअऊद के बारे में ला तरअलूनी मादामा हाज़ल_हिबरू फ़ीकुम जब तक कि यह अल्लामा तुम में रहें मुझसे मसाइल न पूछो मालूम हुआ कि अफ़ज़ल के होते हुए मफ़्जूल की इताअत न करे और हर मुक़ल्लिद की नज़र में अपना इमाम अफ़्ज़ल होता है।

फ़त्हुल क़दीर में है-

तर्जमा जो शख्स मुसलमानों की हुकूमत का मालिक हो फिर उन पर किसी को हाकिम बनाए हालांकि जानता

▫पार्ट -- 16, ✅ जा_अल_हक़ ✅

🕌 चौथा बाब 🕋
अक़्वाले मुफ़स्सेरीन व मुहद्देसीन
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दारमी बाबुल_इक़्तिदा बिल_उलमा में है~

तर्जमा ख़बर दी हमको याला ने उन्होंने कहा कि मुझसे कहा अब्दुल_मलिक ने उन्होंने अता से रिवायत की कि इताअत करो अल्लाह की और इताअत करो रसूल की और अपने में से अम्र वालों की फरमाया अता ने ऊलुल_अम्र इल्म और फ़िक़्हा वाले हज़रात हैं।

तफ़्सीर ख़ाज़िन ज़ेरे आयत~

तर्जमा तुम उनसे पूछो जो मोमिन हैं और कुरआन जानने वाले उलमा हैं।

तफ़्सीर दुर्रे मन्सूर इसी आयत फ़रअलू अहलज़्ज़िक़्रे की तफ़्सीर में है~

तर्जमा इब्ने मरदुव्विया ने हज़रत अनस से रिवायत की फरमाते हैं कि मैंने हुजूर अलैहिस्सलाम से सुना कि फरमाते थे कि बाज़ शख्स नमाज़ पढ़ते हैं, रोज़े रखते हैं, हज और जिहाद करते हैं, हालांकि वह मुनाफ़िक़ होते

▫पार्ट -- 15, ✅ जा_अल_हक़ ✅

🕌 चौथा बाब 🕋

तक़्लीद वाजिब होने के दलाइल में
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इस बाब में हम दो फ़स्लें लिखते हैं, पहली फ़स्ल में तो सिर्फ तक़्लीद के दलाइल हैं, दूसरी में तक़्लीदे शख़्सी के दलाइल।

फ़स्ले अव्वल ~ तक़्लीद का वाजिब होना कुरआनी आयात और अहादीसे सहीहा और अमले उम्मत और अक़्वाले मुफ़स्सेरीन से साबित है, तक़्लीद मुतलक़न भी और तक़्लीदे मुज्तहेदीन भी एक तक़्लीद का सुबूत है,

 (1). इहिदनस सिरातल मुस्तक़ीम सिरातल्लज़ी न अनअमत अलैहिम. सूर:फा़तिहा

तर्जमा - हम को सीधा रास्ता चला, उनका रास्ता जिन पर तूने एहसान किया,

इससे मालूम हुआ कि सिराते मुस्तक़ीम वही है जिस पर अल्लाह के नेक बन्दे चले हों, और तमाम मुफ़स्सेरीन, मुहद्देसीन, फुक़हा, औलिया, अल्लाह, ग़ौस व कुतुब व अब्दाल अल्लाह के नेक बन्दे हैं वह सब ही मुक़ल्लिद गुज़रे लिहाज़ा तक़्लीद ही सीधा रास्ता हुआ।

कोई मुहद्दीस व मुफ़स्सिर, वली ग़ैर मुक़ल्लिद न गुज़रा, ग़ैर मुक़ल्लिद वह है जो मुज्तहिद न हो फिर तक़्लीद न करे, जो मुज्तहिद हो कर तक़्लीद न करे वह ग़ैर मुक़ल्लिद नहीं, क्योंकि मुज्तहिद को तक़्लीद करना मना है।

(2). ला युकल्लिफुल्लाहु नफ़्सन इल्रा वुरअहा (सूर, बकर)

तर्जमा - अल्लाह किसी जान पर बोझ नहीं डालता मगर उसकी ताक़त भर ।

इस आयत से मालूम हुआ कि ताक़त से ज्यादा काम की ख़ुदा तआला किसी को तक़्लीफ़ नहीं देता, तो जो शख्स

▫पार्ट -- 14, ✅ जा_अल_हक़ ✅

🕌 तीसरा बाब 🕋

किस पर तक़्लीद करना वाजिब है और किस पर नहीं
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मुकल्लफ़ मुसलमान दो तरह के हैं एक मुज्तहिद, दूसरे गैर मुजाहिद।

मुज्तहिद वह है जिसमें इस कद्र इल्मी लियाक़त और क़ाबलीयत हो कि कुरआनी इशारात व राज़ों को समझ सके, और कलाम के मक़्सद को पहचान सके, इससे मसाइल निकाल सके, नासिख़ व मंसूख़ का पूरा इल्म रखता हो, इल्मे सर्फ़ व नहव व बलाग़त वग़ैरह में उसको पूरी महारत हासिल हो, अहकाम की तमाम आयतों और अहादीस पर उसकी 👀 नज़र हो, इसके अलावा ज़की और ख़ुश फ़हम हो, देखो तफ़्सीराते अहमदिया वग़ैरह

और जो कि इस दरजा पर न पहुँचा हो वह ग़ैर मज्तहिद या मुक़ल्लिद है, ग़ैर मुज्तहिद पर तक़्लीद ज़रूरी है मुज्तहिद के लिए तक़्लीद मना,

मुज्तहिद के छे:6 तब्के हैं

(1). मुज्तहिद फ़िश शरअ।
(2). मुज्तहिद फ़िल, मज़हब।
(3). मुज्तहिद फ़िल, मिसाइल।
(4). अस्हाबुत्तख़रीज।
(5). अस्हाबुत्तर्जीह।
(6). अस्हाबुत्तमीज़।

मुक़द्दमा शामी बहस तब्क़ातुल_फुक़हा,,

(1). मुज्तहिद फ़िश शरअ ~

वह हज़रात हैं जिन्होंने इज्तिहाद करने के क़वाइद बनाए जैसे चारों इमाम अबू हनीफ़ा, शाफ़ई, मालिक, अहमद बिन हंबल रज़ि अल्लाह अन्हुम अज्म ईन।

(2). मुज्तहिद फ़िल मज़हब ~

वह हज़रात हैं जो इन उसूल में तक़्लीद करते हैं, और इन उसूल से मसाइले शरईया फ़रईया खुद निकाल सकते हैं।

जैसे इमाम अबू यूसुफ़ व मुहम्मद व इब्ने मुबारक रहमतुल्लाह अज्मईन कि यह क़वाइद में हज़रत इमाम अबू हनीफ़ा रज़ि अल्लाह अन्हु के मुक़ल्लिद हैं और मसाइल में खुद मुज्तहिद।

(3). मुज्तहिद फ़िल_मसाइल ~ वह हज़रात हैं जो क़वाइद और मसाइले फरईया दोनों में मुक़ल्लिद हैं मगर वह मसाइल जिनके मुतअल्लिक़ अइम्मा की वज़ाहत नहीं मिलती उनको कुरआन व हदीस वग़ैरह दलाइल से निकाल सकते हैं जैसे इमाम तहावी और क़ाज़ी खाँ, शम्सुल, अइम्मा सरख़सी वग़ैरह।

(4). अस्हाबे तख़्रीज ~ वह हज़रात हैं तो इज्तिहाद तो बिल्कुल नहीं कर सकते, हां अइम्मा में से किसी के मुख्तसर क़ौल की तफ़्सील फ़रमा सकते हैं, जैसे इमाम करख़ी वग़ैरह।

(5). अस्हाबे तरजीह ~ वह हज़रात हैं जो इमाम साहब की चन्द रिवायात में से बाज़ को तरजीह दे सकते हैं यानी अगर किसी मसला में हज़रत इमाम अबू हनीफ़ा रज़ि अल्लाह अन्हु के दो क़ौल रिवायत में आए तो उनमें किस को तरजीह दें वह कर सकते हैं, इसी तरह जहाँ इमाम साहब और साहिबैन का इख़्तिलाफ़ हो तो किसी के क़ौल को तरजीह दे सकते है कि हाज़ा औला या हाज़ा असह वग़ैरह जैसे साहिबे कुदूरी और साहिबे हिदायह।

(6). अस्हाबे तमीज़ ~ वह हज़रात हैं जो जा़हिर मज़हब और रिवायाते नादिरह इसी तरह क़ौले ज़ईफ़ और क़वी और ज़्यादा मज़बूत में फ़र्क़ कर सकते हैं कि अक़वाले रदशुदा और रिवायाते ज़ईफ़ा को तर्क कर दें, और सही रिवायात और मोतबर क़ौल को लें, जैसे कि साहिबे कन्ज और साहिबे दुर्रे मुख़्तार वग़ैरह।

जिनमें इन छ: वस्फों में से कुछ भी न हों, वह मुक़ल्लिद महज़ हैं, जैसे हम और हमारे ज़माना के आम उलमा उनका सिर्फ यही काम है कि 📖 किताब से मसाइल देख कर लोगों को बताएं ।

हम पहले अर्ज़ कर चुके हैं कि मुज्तहिद को तक़्लीद करना हराम है, तो किसी की तक़्लीद न करेंगे और इससे

▫पार्ट -- 13, ✅ जा_अल_हक़ ✅

🕌 दूसरा बाब 🕋

किन मसाइल में तक़्लीद की जाती है किन में नहीं
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तक़्लीदे शरई में कुछ तफ़्सील है, शरई मसाइल तीन तरह के हैं~

(1). अकाइद,

(2). वह अहकाम जो साफ़, साफ़ कुरआन पाक या हदीस शरीफ़ से साबित हों इत्जिहाद को उनमें दख़ल न हो,

(3). वह अहकाम जो कुरआन या हदीस से ग़ौर व खोज करके निकाले जाए।

अकाइद में किसी की तक़्लीद जाइज़ नहीं,

तफ़्सीरे रुहुल_बयान आख़िर सूर_हूद ज़ेरे आयत नसीबहुम ग़ैरा मन्कूसिन में है~

तर्जमा अगर कोई हम से पूछे कि तौहीद व रिसालत वग़ैरह तुमने कैसे मानी, तो यह न कहा जाएगा कि हज़रत इमाम अबू हनीफ़ा रज़ि अल्लाहु अन्हु के फरमाने से या कि फ़िक़्हे अकबर से बल्कि दलाइले तौहीद व रिसालत से क्योंकि अकाइद में तक़्लीद नहीं होती।

मुक़द्दमा शामी बहसु तक़्लीदुल, मफ़्ज़ूल मअल, अफ़्ज़ल में है~

तर्जमा यानी जिनका हम एतकाद रखते हैं फ़रई मसाइल के अलावा कि जिनका एतकाद रखना हर मुकल्लफ पर बग़ैर किसी की तक़्लीद के वाजिब है वह अकाइद वही हैं जिन पर अहले सुन्नत व जमाअत हैं, वह अहले

▫पार्ट -- 12, ✅ जा_अल_हक़ ✅

🕌 बाब अव्वल 🕋

तक़्लीद के माना और इसके अक़्साम में
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तक़्लीद के दो माना हैं ~
(1).एक तो मानाए लुग़वी,
(2). दूसरा शरई।

लुग़वी माना हैं गले में हार या पट्टा डालना। तक़्लीद के शरई माना यह हैं कि किसी के कहने व करने को अपने ऊपर लाज़िमे शरई जानना यह समझ कर कि उसका कलाम और उसका काम हमारे लिए हुज्जत है, क्योंकि यह शरई मुहक़्क़िक़ है ।

जैसे कि हम मसाइले शरईया में इमाम साहब का क़ौल व फ़ेअल अपने लिए दलील समझते हैं और दलाइले शरईया में 👀 नज़र नहीं करते।

हाशिया हुसामी, बाब मुताबिअत रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम में सफा: 86, पर शरह मुख़्तसरुल, मनार से नक़्ल किया।

यही इबारत नूरुल_अनवार बहस तक़्लीद में भी है, तक़्लीद के माना हैं किसी शख्स का अपने ग़ैर की इताअत करना इसमें जो इसको कहते हुए या करते हुए सुन ले यह समझ कर कि वह अहले तहक़ीक़ में से है कि बग़ैर दलील में 👀 नज़र किए हुए,

और इमाम ग़ज़ाली किताबुल_मुस्तस्फ़ा, जिल्द- दोम, सफा: 387 में फरमाते हैं ~

अत्तक़्लीदु हुवा क़बूलु क़ौलिन बिला हुज्जतिन

मुसल्लमुस सुबूत में है~

अत्तक़्लीदुल, अमलु बेक़ौलिल, ग़ैरे मिन ग़ैरे हुज्जतिन

तर्जमा वही जो ऊपर ब्यान हुआ, इस तारीफ़ से मालूम हुआ कि हुजूर अलैहिस्सलाम की इताअत करने को

▫पार्ट -- 11, ✅ जा_अल_हक़ ✅

🕌 तक़्लीद की बहस 🕋
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तक़्लीद के बाब में पाँच बातें ख्याल में रहना ज़रूरी हैं~

(1). तक़्लीद के माना और इसकी किस्में ।

(2). तक़्लीद कौन सी ज़रूरी है और कौन सी मना ।

(3). तक़्लीद किस पर लाज़िम है और किस पर नहीं ।

(4). तक़्लीद के वाजिब होने के दलाइल ।

(5). तक़्लीद पर एतराज़ात और उनके मुकम्मल जवाबात।
इसलिए इस बहस के पाँच बाब किए जाते हैं ।

▫पार्ट -- 10, ✅ जा_अल_हक़ ✅

🕌 मुक़द्देमा 🕋
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(3). तहरीफ़ यह है कि कुरआन के ऐसे माना या मतलब ब्यान करे जो कि इज्मा_ए_उम्मत या फिर अक़ीद_ए_इस्लामिया या इज्मा_ए_मुफ़स्सेरीन के खिलाफ हो, या खुद तफ़्सीरे कुरआन के खिलाफ हो, और कहे कि इस आयत के वह मानी नहीं हैं बल्कि यह मानी हैं कि जो मैंने कहे, यह खुला हुआ कुफ्र है

जैसे कि आयाते कुरआनिया और किराते मुतवातिरह का इंकार कुफ्र है, ऐसे ही कुरआन के मुतवातिर माना का इंकार कुफ्र जैसे कि मौलवी क़ासिम साहब ने ख़ातमुन्नबीयीन के माना किए असली नबी, और माना आख़िरी नबी को ख़्याले अवाम यानी ग़लत कहा, और नबुव्वत की दो किस्में कर डालीं, असली और आर्ज़ी हालांकि उम्मत का इज्मा और अहादीस का इत्तिफ़ाक़ इस पर है कि ख़ातमुन्नबीयीन के माना हैं आख़िरी नबी और हुजूर अलैहिस्सलाम के जमाना में या बाद कोई नया नबी नहीं आ सकता, यह तहरीफ़ है,

इसी तरह कुरआन की जिन आयातों में ग़ैरल्लाह को पुकारने की मुमानिअत की गई है वहाँ मुफ़स्सेरीन का

▫पार्ट -- 9, ✅ जा_अल_हक़ ✅

🕌 मुक़द्देमा 🕋
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इस हदीस के हाशिया में मज्म_उल_बिहार से नक़्ल फरमाया ~

तर्जमा यह तो जाइज़ नहीं कि इस इबारत की यह मुराद हो कि कोई भी कुरआन में बग़ैर सुने हुए कुछ कलाम ही न करे। क्योंकि सहाब_ए_किराम ने कुरआन की तफ़्सीर की और आपस में बहुत तरह उनमें इख़्तिलाफ़ रहा।

और उनकी हर बात तो सुनी हुई न थी, नीज़ फिर हुजूर अलैहिस्सलाम का यह दुआ फरमाना बेकार होगा कि ऐ अल्लाह, इनको दीनी फ़िक्ह, दे और इनको तावील सिखा दे।

और हज़रत इमाम ग़जा़ली ने इहया_उल_उलूम बाबे हश्तुम में फ़स्ल चहारुम इस मक़्सद के लिए मुकर्रर की है कि कुरआन का समझना बग़ैर नक़्ल भी जाइज़ है, वह फरमाते हैं कि कुरआन के एक ज़ाहिरी मतलब हैं और एक बातिनी, उलमा ज़ाहिरी मतलब की तहक़ीक़ करते हैं और सोफ़िया, ए, किराम बातिनी की,

हज़रत अली रज़ि अल्लाहु अन्हु ने फ़रमाया कि अगर मैं चाहूं तो सूरह फ़ातिहा की तफ्सीर से 70, ऊंट भर दूँ, और हज़रत अली ने फ़रमाया कि जो शख़्स कुरआन समझ लेता है वह तमामी उलूम को ब्यान कर सकता है फिर जो हदीस में यह आया कि जो शख़्स अपनी राय से कुरआन में कहे वह ख़ताकार है।

इसका मतलब यही है कि जिन बातों का इल्म बग़ैर नक़्ल नहीं हो सकता उनको राय से ब्यान करना हराम है,

▫पार्ट -- 8, ✅ जा_अल_हक़ ✅

🕌 मुक़द्देमा 🕋
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इस हदीस के मातहत मिर्क़ात में है, वल, मुरादु मिन्हु मा युस्तंबतु बेहिल, मआनी व युदरिकु बेहिल, इशारातु वल, उलूमुल, ख़फ़ीयतु इस फ़हम से मुराद वह इल्म है जिससे कुर-आन के मानी निकाले जाएं और जिससे इशारात मालूम हों और छुपे हुए इल्म का पता लगे।

इस आयत और हदीस से मालूम हुआ कि कुरआनी मायने में ग़ौर करना और इल्म व अक़्ल से काम लेना इससे मसाइल का निकालना जाइज़ है।

हर जगह नक़्ल की ज़रूरत नहीं।

जुमल हाशियाए जलालैन में है ~

तर्जमा तफ़्सीर के लुग्वी मायने हैं ज़ाहिर करना और तावील के मायना हैं लौटना और इल्मे तफ़्सीर कुरआन पाक के उन हालात का जानना है जो अल्लाह की मुराद को बताएं, ताक़ते इंसानी के मुताबिक। फिर इसकी दो क़िस्में हैं। एक तो तफ़्सीर और तफ़्सीर वह है जो नक़्ल के बग़ैर न मालूम हो सके। और एक तावील, और तावील वह है जिसको अरबी काइदों से मालूम कर सकें।

लिहाज़ा तावील का त अल्लुक़ फ़हम (समझ) से है और तावील की राय से जाइज़ होने में और तफ्सीर के राय से

▫पार्ट -- 7, ✅ जा_अल_हक़ ✅

🕌 मुक़द्देमा 🕋
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चूंकि इस किताब में हर मसला के मुतअ़ल्लिक कुरआनी आयात पेश की जाएंगी और उन आयात की तफ़्सीर भी ब्यान होगी, इसलिए तफ़्सीरे कुरआन के मुत_अल्लिक नीची लिखी बातें लिहाज़ में रखना ज़रूरी हैं।

एक तो है कुरआन की तफ़्सीर, दूसरी कुरआन की तावील, तीसरी कुरआन की तहरीफ़। उनकी अलग-अलग तारीफ़ें हैं और अलग-अलग अहकाम ~

(1). कुरआन की तफ़्सीर अपनी राय से करना हराम है, बल्कि उसके लिए नक़्ल की ज़रूरत है, कुरआन की जाइज तावील अपने इल्म व मारिफ़त से करना जाइज़ और बाइसे सवाब है, कुरआन पाक की तहरीफ़ करना कुफ्र है।

तफ़्सीर उसे कहते कि कुरआने करीम के वह अहवाल ब्यान करना जो कि अक़्ल से मालूम न हो सकें। नक़्ल की उनमें ज़रूरत हो जैसे आयात का शाने नुजूल या आयात का नासिख़ व मन्सूख़ होना, अगर कोई शख्स बगैर हवाला नक़्ल किए अपनी राय से कह दे कि फलां आयत मन्सूख़ है या फलां आयत की यह शाने नुजू़ल है तो यह मोतबर नहीं, और कहने वाला गुनहगार है।

मिश्कात किताबुल_इल्म फ़स्ले दोम (सफा. 35) में है~

मन का़ला फ़िल_कुरआने बेरायही फ़ल्यतबव्ववु मक़्अदहू मिनन्नारे

जो आये उन शख्स कुरआन में अपनी राय से कुछ कहे वह अपनी जगह जहन्नम में बना ले, मिश्कात में उसी

▫पार्ट -- 06, ✅ जा_अल_हक़ ✅

🕌 दीबाचा 🕋
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मसलए इल्मे ग़ैब में अल_कलिमतुल_औलिया मुसन्निफ़ हज़रत सदरुल, अफ़ज़िल उस्ताज़ी व मुर्शिदी मौलाना अल, हाज सैयद मुहम्मद नईमुद्दीन साहब मुरादाबादी,

तीजा फ़ातिहा वग़ैरह में अनवारे सातिआ मुसन्निफ़ हज़रत मौलाना अब्दुस्समी साहब बेदिल रामपुरी

और मसाला हाज़िर व नाज़िर उर्स व ज़ियारते कुबूर व तमाम मसाइल में तस्नीफा़ते आला हज़रत मुजद्दिद मीअते हाज़िरह मौलाना अहमद रज़ा खाँ साहब बरैलवी कुद्देस सिर्रहुल ,अज़ीज़ वग़ैरह,

मगर ख्याल यह था कि कोई 📖 किताब ऐसी लिखी जाए जो कि इन तमाम बहसों की जामे हो, जिसके पास वह किताब हो वह तक़्रीबन हर मसअले में मुखा़लिफ़ से गुफ़्तगू कर सके और मुसलमानों के अका़इद को उन लोगों से बचा सके, इसलिए मैंने हस्बतन लिल्लाहि इस काम की हिम्मत की, हिम्मत तो कर दी मगर अपनी कम इल्मी और बे बज़ाअती का मुझको पूरा पूरा अहसास है, शुरू करना मेरा काम है और इसको अंजाम पर

▫पार्ट -- 05, ✅ जा_अल_हक़ ✅

🕌 दीबाचा 🕋
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लेकिन मौजूदा ज़माना में ब-मुकाबला ग़ैर मुकल्लेदीन के ज़्यादा ख़तरनाक देवबन्दी हैं, क्योंकि आम मुसलमान उनको पहचान नहीं सकते, उन लोगों ने अपनी किताबों में हुजूर अलैहिस्सलाम की ऐसी तौहीनें की कि कोई खुला हुआ मुशरिक भी नहीं कर सकता, मगर फिर भी मुसलमानों के पेशवा बनते हैं, और इस्लाम के अकेले ठेकेदार ।

मौलवी अशरफ़ अली साहब थानवी ने हिफ्जुल_ईमान में हुजूर अलैहिस्सलाम के इल्म को जानवरों के इल्म की तरह बताया,

मौलवी ख़लील अहमद साहब अंबेठी ने अपनी किताब 📖 बराहीने क'आतेआ में शैतान और मलकुल, मौत का इल्म हुजूर अलैहिस्सलाम के इल्म से ज़्यादा बताया,

मौलवी इस्माईल साहब देहलवी ने नमाज़ में हुजूर अलैहिस्सलाम के ख़्याल को गधे और बैल 🐂 के ख़्याल से बदतर लिखा,

मौलवी क़ासिम साहब नानौतवी ने, तहज़ीरुन्नास में हुजूर अलैहिस्सलाम को खा़तमुन्नबीयीन यानी आख़िरी नबी मानने से इंकार किया और कहा कि हुजूर अलैहिस्सलाम के बाद अगर और भी नबी आ जाएं तब भी

▫पार्ट -- 04, ✅ जा_अल_हक़ ✅

🕌 दीबाचा 🕋
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उस जगह पहले एक कुब्बा बना हुआ था जहाँ लोग जाकर नमाज़ें पढ़ते थे और उसकी ज़ियारत करते थे, यह हज़रत आमिना ख़ातून का मकान था और उसी जगह इस्लाम का आफ़ताब चमका, मगर अब उसकी यह बेहुरमती की गई ।

यह तो थे अरब के वाक़ियात लेकिन हमको इस वक़्त हिन्दुस्तान से गुफ़्तगू करनी है दिल्ली में एक शख्स पैदा हुआ जिसका नाम था मौलवी इस्माईल, उसने मुहम्मद बिन अब्दुल, वहाब नज्दी की किताबुत्तौहीद का उर्दू में खुलासा किया, जिसका नाम रखा तक्वियतुल_ईमान और उसकी हिन्दुस्तान में इशाअत की,

वहाबी भी उन्हें शहीद कहते हैं क्योंकि यह हज़रत इसी तक्वियतुल_ईमान की बदौलत सरहदी पठानों के हाथों कत्ल हुए, देखो अनवारे आफ़ताब सदाक़त, मगर मशहूर किया कि सीखों के हाथों मरे।

आला हज़रत रहमतुल्लाह अलैह ने फ़रमाया~
वह वहाबिया ने जिसे दिया है लक़ब शहीद व ज़बीह का,
वह शहीद लैल-ए-नज्द था वह ज़बीहे तेग़े ख़्यार है।

अगर सिखों के हाथों कत्ल हुए होते तो अमृतसर या मशिरक़ी पंजाब के किसी और 🌆 शहर में मारे जाते

▫पार्ट -- 03, ✅ जा_अल_हक़ ✅

🕌 दीबाचा 🕋
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इस फरमाने आली के मुताबिक बारहवीं सदी में नज्द से मुहम्मद बिन अब्दुलवह्हाब पैदा हुआ, उसने क्या, क्या अहले हरमैन व दीगर मुसलमानों पर ज़ुल्म किए, उसकी दास्तान तो सैफुल, जब्बार और बवारिक़े मुहम्मदिया अला अरग़मातुन्नजदीया वग़ैरह कुतुबे तवारीख़ में देखा, उनके कुछ ज़ुल्म अल्लामा शामी ने अपनी किताब रद्दुल, मुख़्तार जिल्द सोम बाबुल, बुग़ात के शुरू में इस तरह ब्यान फरमाए हैं-

तरजमा जैसे कि हमारे ज़माना में अब्दुलवहाब के मानने वालों का वाक़या हुआ कि यह लोग नज्द से निकले और मक्का व मदीना शरीफ़ पर उन्होंने ग़ल्बा कर लिया ।

अपने को हंबली मज़हब की तरफ़ मन्सूब करते थे, लेकिन उनका अ़क़ीदा यह था कि सिर्फ़ हम ही मुसलमान हैं, और जो हमारे अ़क़ीदे के खिलाफ है वह मुशरिक है,

इसलिए उन्होंने अहले सुन्नत वल जमाअत का कत्ल जाइज़ समझा और उनके उलमा को क़त्ल किया, यहाँ तक कि अल्लाह ने वहाबियों की शौकत तोड़ी और उनके 🌆 शहरों को वीरान कर दिया, और इस्लामी लश्करों को उन पर फ़तह दी,

यह वाक़या 1233,हिजरी में हुआ,
सैफुल, जब्बार वग़ैरह में उनके ज़ुल्म बे, शुमार ब्यान फरमाए कि मक्का मुकर्रमा व मदीना तैयबा में बेगुनाहों को बे, दरेग़ क़त्ल किया और हरमैन शरीफ़ैन के रहने वालों की औरतों और लड़कियों से ज़िना किया, उनको ग़ुलाम बनाया उनकी औरतों को अपनी लौंडिया, सादाते किराम को बहुत क़त्ल व ग़ारत किया, मस्जिदे नबवी शरीफ़ के

▫पार्ट -- 02, ✅ जा_अल_हक़ ✅

🕌 दीबाचा 🕋
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अल्लाहुम्मा बारिक लना फ़ी यमीनेना

ऐ अल्लाह, हमको हमारे यमन में बरकत दे,

हाज़िरीन में से कुछ ने अर्ज़ किया

व फ़ी नज्दिना या रसूलल्लाह, दुआ फ़रमाएं कि हमारे नज्द में बरकत दे फिर हुजूर अलैहिस्सलाम ने वही दुआ फ़रमाई, शाम और यमन का जिक्र फ़रमाया मगर नज्द का नाम न लिया,

उन्होंने फिर तवज्जोह दिलाई कि व फ़ी नज्दिना हुजूर यह भी दुआ फरमाए कि नज्द में बरकत हो, ग़रज़ तीन बार यमन और शाम के लिए दुआएं फरमाई, बार, बार तवज्जोह दिलाने पर नज्द को दुआ न फरमाई,,

बल्कि आख़िर में फरमाया मैं इस अज़्ली महरूम ख़ित्ता को दुआ किस तरह फरमाऊँ, वहाँ तो ज़लज़ले और फ़ित्ने होंगे, और वहाँ शैतानी गरोह पैदा होगा ।

इससे मालूम हुआ कि हुजूर सैयदे आलम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की निगाहे पाक में दज्जाल के फ़ित्ना के बाद नज्द का फ़ित्ना था जिससे इस तरह ख़बर दे दी।

इसी तरह मिशकात जिल्द अव्वल किताबुल किसास बाब क़त्लु अहिलर्रद्दे (स०.309) में ब, हवाला नसाई हज़रत अबू बरज़ह रज़ि, अल्लाहु अन्हु से रिवायत है कि -

हुजूर अलैहिस्सलाम एक बार कुछ माले ग़नीमत तक़्सीम फ़रमा रहे हैं, एक शख़्स ने पीछे से अर्ज़ किया या

▫पार्ट -- 01, ✅ जा_अल_हक़ ✅

🕌 दीबाचा 🕋
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🌹अल्हदुलिल्लाहि रब्बिल, आलमीन ,खा़लिक़िस्समावाति वल, अर्दीना वस्सलातु वस्सलामु अला मन काना नबीयन व आदमु बैनल, माइ वत्तैय्यिबीन, अज्मलिल, अजमलीन, अकमलिल, अकमलीन, सैयदिना मुहम्मदिन व आलेही व अस्हाबेही व अहले बैतेही अज्मईन। 🌹

✳️ दीने इस्लाम को दुनिया में तशरीफ़ लाए हुए आज तक़्रीबन पौने चौदह सौ बरस गुज़रे, इस अरसा में इस पाक दीन ने हजा़रहा बलाओं से मुक़ाबला किया।

हुजूर अलैहिस्सलाम के इस लहलहाते हुए चमन पर बहुत सी तेज़ आंधियाँ आई और अपना, अपना जो़र दिखा कर चली गई, मगर अल्हम्दुलिल्लाह कि यह चमन इसी तरह सर सब्ज़ व शादाब रहा, इस आफ़ताब पर बारहा काले बादल और ग़ुबार आए, मगर यह आफ़ताब इसी तरह चमकता रहा और क्यों न होता कि रब तआ़ला खुद इस दीन का हाफ़िज़ व नासिर है खुद फ़रमाता है -

" इन्ना नहनु नज़्ज़लनज़्ज़िक्रा व इन्ना लहू लहाफ़िज़ून "

हमने ही कुरआ़न उतारा और हम ही इसके मुहाफ़िज़ हैं।

कभी इस पर यज़ीदी बादल आए और कभी हुज्जाजी गुबार कभी मामूनी ताक़त ने इसके सामने आने की जुरअत की, और कभी तातारी कुव्वतें इससे टकराईं, कभी खा़र्जी हमले ने इससे मुका़बला किया और कभी रफ़्ज़ की