🕌 मुक़द्देमा 🕋
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इस हदीस के मातहत मिर्क़ात में है, वल, मुरादु मिन्हु मा युस्तंबतु बेहिल, मआनी व युदरिकु बेहिल, इशारातु वल, उलूमुल, ख़फ़ीयतु इस फ़हम से मुराद वह इल्म है जिससे कुर-आन के मानी निकाले जाएं और जिससे इशारात मालूम हों और छुपे हुए इल्म का पता लगे।
इस आयत और हदीस से मालूम हुआ कि कुरआनी मायने में ग़ौर करना और इल्म व अक़्ल से काम लेना इससे मसाइल का निकालना जाइज़ है।
हर जगह नक़्ल की ज़रूरत नहीं।
जुमल हाशियाए जलालैन में है ~
तर्जमा तफ़्सीर के लुग्वी मायने हैं ज़ाहिर करना और तावील के मायना हैं लौटना और इल्मे तफ़्सीर कुरआन पाक के उन हालात का जानना है जो अल्लाह की मुराद को बताएं, ताक़ते इंसानी के मुताबिक। फिर इसकी दो क़िस्में हैं। एक तो तफ़्सीर और तफ़्सीर वह है जो नक़्ल के बग़ैर न मालूम हो सके। और एक तावील, और तावील वह है जिसको अरबी काइदों से मालूम कर सकें।
लिहाज़ा तावील का त अल्लुक़ फ़हम (समझ) से है और तावील की राय से जाइज़ होने में और तफ्सीर के राय से
नाजाइज़ होने में राज़ यह है कि तफ्सीर तो खुदा_ए_पाक पर गवाही देना है और इसका यक़ीन करना है कि रब तआला ने इस कलिमा के यही मयना मुराद लिए है ।
और यह बग़ैर बताए जाइज़ नहीं, इसीलिए हाकिम ने फ़ैसला कर दिया के सहाबी की तफ़्सीर मरफूअ हदीस के हुक्म में है और तावील चन्द एहतमालात में से कुछ को तरजीह दे देने का नाम है, वह भी बिला यक़ीन।
मिर्कात शरह मिश्कात किताबुल, इल्म फ़स्ल दोम में मन क़ाला फ़िल. कुरआने बेरायही के तहत फरमाते है ~
तर्जमा यानी हदीस का मतलब यह है कि कुरआन के मानी या उसकी किरात में अपनी तरफ़ से कलाम करे लुग़त और जबान जानने वाले इमामों के क़ौल को तलाश न करे। शरई काइदों का लिहाज़ न रखे बल्कि इस तरह कह दे जिसको उसकी अक़्ल चाहे हालांकि यह मानी ऐसे हों कि जिनका समझना नक़्ल पर मौकूफ़ हो जैसे कि शाने नाज़ूल और नासिख़ व मंसूख़।
तिर्मिज़ी जिल्द दोम किताबुल, तफ़्सीर के शुरू में है~
तर्जमा कुछ अहले इल्म सहाब, ए, किराम वग़ैरह से यही रिवायत है कि वह हज़रात इसमें बहुत सख़्ती करते थे कि कुरआन की तफ़्सीर बग़ैर इल्म की जाए।
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📕 जा_अल_हक़ व ज़हक़ल_बातिल
सफ़हा न०-16-17
🖌️पोस्ट क्रेडिट ~ एस. अली. औवैसी & शाकिर अली बरेलवी
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https://MjrMsg.blogspot.com/p/ja-alhaq-hindi.html
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इस हदीस के मातहत मिर्क़ात में है, वल, मुरादु मिन्हु मा युस्तंबतु बेहिल, मआनी व युदरिकु बेहिल, इशारातु वल, उलूमुल, ख़फ़ीयतु इस फ़हम से मुराद वह इल्म है जिससे कुर-आन के मानी निकाले जाएं और जिससे इशारात मालूम हों और छुपे हुए इल्म का पता लगे।
इस आयत और हदीस से मालूम हुआ कि कुरआनी मायने में ग़ौर करना और इल्म व अक़्ल से काम लेना इससे मसाइल का निकालना जाइज़ है।
हर जगह नक़्ल की ज़रूरत नहीं।
जुमल हाशियाए जलालैन में है ~
तर्जमा तफ़्सीर के लुग्वी मायने हैं ज़ाहिर करना और तावील के मायना हैं लौटना और इल्मे तफ़्सीर कुरआन पाक के उन हालात का जानना है जो अल्लाह की मुराद को बताएं, ताक़ते इंसानी के मुताबिक। फिर इसकी दो क़िस्में हैं। एक तो तफ़्सीर और तफ़्सीर वह है जो नक़्ल के बग़ैर न मालूम हो सके। और एक तावील, और तावील वह है जिसको अरबी काइदों से मालूम कर सकें।
लिहाज़ा तावील का त अल्लुक़ फ़हम (समझ) से है और तावील की राय से जाइज़ होने में और तफ्सीर के राय से
नाजाइज़ होने में राज़ यह है कि तफ्सीर तो खुदा_ए_पाक पर गवाही देना है और इसका यक़ीन करना है कि रब तआला ने इस कलिमा के यही मयना मुराद लिए है ।
और यह बग़ैर बताए जाइज़ नहीं, इसीलिए हाकिम ने फ़ैसला कर दिया के सहाबी की तफ़्सीर मरफूअ हदीस के हुक्म में है और तावील चन्द एहतमालात में से कुछ को तरजीह दे देने का नाम है, वह भी बिला यक़ीन।
मिर्कात शरह मिश्कात किताबुल, इल्म फ़स्ल दोम में मन क़ाला फ़िल. कुरआने बेरायही के तहत फरमाते है ~
तर्जमा यानी हदीस का मतलब यह है कि कुरआन के मानी या उसकी किरात में अपनी तरफ़ से कलाम करे लुग़त और जबान जानने वाले इमामों के क़ौल को तलाश न करे। शरई काइदों का लिहाज़ न रखे बल्कि इस तरह कह दे जिसको उसकी अक़्ल चाहे हालांकि यह मानी ऐसे हों कि जिनका समझना नक़्ल पर मौकूफ़ हो जैसे कि शाने नाज़ूल और नासिख़ व मंसूख़।
तिर्मिज़ी जिल्द दोम किताबुल, तफ़्सीर के शुरू में है~
तर्जमा कुछ अहले इल्म सहाब, ए, किराम वग़ैरह से यही रिवायत है कि वह हज़रात इसमें बहुत सख़्ती करते थे कि कुरआन की तफ़्सीर बग़ैर इल्म की जाए।
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📕 जा_अल_हक़ व ज़हक़ल_बातिल
सफ़हा न०-16-17
🖌️पोस्ट क्रेडिट ~ एस. अली. औवैसी & शाकिर अली बरेलवी
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