🕌 बाब अव्वल 🕋
तक़्लीद के माना और इसके अक़्साम में
-------------------------------------------------------
तक़्लीद के दो माना हैं ~
(1).एक तो मानाए लुग़वी,
(2). दूसरा शरई।
लुग़वी माना हैं गले में हार या पट्टा डालना। तक़्लीद के शरई माना यह हैं कि किसी के कहने व करने को अपने ऊपर लाज़िमे शरई जानना यह समझ कर कि उसका कलाम और उसका काम हमारे लिए हुज्जत है, क्योंकि यह शरई मुहक़्क़िक़ है ।
जैसे कि हम मसाइले शरईया में इमाम साहब का क़ौल व फ़ेअल अपने लिए दलील समझते हैं और दलाइले शरईया में 👀 नज़र नहीं करते।
हाशिया हुसामी, बाब मुताबिअत रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम में सफा: 86, पर शरह मुख़्तसरुल, मनार से नक़्ल किया।
यही इबारत नूरुल_अनवार बहस तक़्लीद में भी है, तक़्लीद के माना हैं किसी शख्स का अपने ग़ैर की इताअत करना इसमें जो इसको कहते हुए या करते हुए सुन ले यह समझ कर कि वह अहले तहक़ीक़ में से है कि बग़ैर दलील में 👀 नज़र किए हुए,
और इमाम ग़ज़ाली किताबुल_मुस्तस्फ़ा, जिल्द- दोम, सफा: 387 में फरमाते हैं ~
अत्तक़्लीदु हुवा क़बूलु क़ौलिन बिला हुज्जतिन
मुसल्लमुस सुबूत में है~
अत्तक़्लीदुल, अमलु बेक़ौलिल, ग़ैरे मिन ग़ैरे हुज्जतिन
तर्जमा वही जो ऊपर ब्यान हुआ, इस तारीफ़ से मालूम हुआ कि हुजूर अलैहिस्सलाम की इताअत करने को
तक़्लीद नहीं कह सकते क्योंकि उनका हर क़ौल व फ़ेअल दलीले शरई है, तक़्लीद में होता है दलीले शरई को न देखना,
लिहाज़ा हम हुजूर अलैहिस्सलाम के उम्मती कहलाएंगे न कि मुक़ल्लिद।
इसी तरह सहाब_ए_किराम व अइम्म_ए_दीन हुजूर अलैहिस्सलाम के उम्मती हैं न कि मुक़ल्लिद ।
इसी तरह आलिम की इताअत जो आम मुसलमान करते हैं इसको भी तक़्लीद न कहा जाएगा, क्योंकि कोई भी इन आलिमों की बात या उनके काम को अपने लिए हुज्जत नहीं बताता, बल्कि यह समझ कर उनकी बात मानता है कि यह मौलवी आदमी हैं, 📖 किताब से देख कर कह रहे होंगे, अगर साबित हो जाए कि फ़त्वा ग़लत था, किताब के ख़िलाफ़ था तो कोई भी न माने बख़िलाफ़ क़ौले इमाम अबू हनीफ़ा के कि अगर वह हदीस या कुरआन या इज्मा_ए_उम्मत को देखकर मसला फरमा दें तो भी कबूल, और अपने क़्यास से हुक्म दें तो भी कबूल होगा, यह फ़र्क़ जरूर याद रहे।
तक़्लीद दो तरह की है, तक़्लीदे शरई और ग़ैर शरई , तक़्लीदे शर ई तो शरीअत के अहकाम में किसी की पैरवी करने को कहते हैं, जैसे नमाज़ रोज़े, हज, ज़कात, वग़ैरह के मसाइल में अइम्म_ए_दीन की इताअत की जाती है
और तक़्लीदे ग़ैर शरई है दूनियावी बातों में किसी की पैरवी करना, जैसे तबीब लोग इल्मे तिब में बू अली सीना की और शाइर लोग दाग़, अमीर, या मिर्ज़ा ग़ालिब की या नहवी व सर्फी़ लोग सीबवह और ख़लील की पैरवी करते है इसी तरह हर पेशावर अपने पेशा में उस फ़न के माहिरीन की पैरवी करते हैं, यह तक़्लीदे दुनियावी है।
सूफ़िया_ए_किराम जो वज़ाइफ़ व आमाल में अपने मशाइख़ के क़ौल व फ़ेअल की पैरवी करते हैं वह तक़्लीदे दीनी तो है मगर तक़्लीदे शरई नहीं बल्कि तक़्लीद फ़ित्तरीक़त है इसलिए कि यह शर ई मसाइल हराम व हलाल में तक़्लीद नहीं, हां जिस चीज़ में तक़्लीद है वह दीनी काम है।
तक़्लीदे ग़ैर शरई अगर शरीअत के ख़िलाफ़ में है तो हराम है और अगर खिलाफे इस्लाम न हो तो जाइज़ है, बूढ़ी औरतें अपने बाप दादाओं की ईजाद की हुई शादी ग़मी की उन रस्मों की पाबन्दी करें जो ख़िलाफ़े शरीअत हैं तो हराम है,
और तबीब लोग जो तिब्बी मसाइल में बू अली सीना वग़ैरह की पैरवी करें जो कि मुख़ालिफ़े इस्लाम न हों तो जाइज़ है |
इसी पहली किस्म की हराम तक़्लीद के बारे में कुरआन करीम जगह जगह मना फ़रमाता है और ऐसी तक़्लीद करने वालों की बुराई फ़रमाता है~
तर्जमा और उसका कहना न मानो जिसका दिल हमने अपनी याद से ग़ाफ़िल कर दिया और वह अपनी ख़्वाहिश के पीछे चला, और उसका काम हद से ग़ुज़र गया,
व इन जाहदाका अला अन तुश्रिका बी मा लैसा लका बेही इल्मुन फ़ला तुतिअहुमा और अगर वह तुझ से कोशिश करें कि तू मेरा शरीक ठहरा, उसको जिसका तुझको इल्म नहीं तो उनका कहना न मान,
तर्जमा और जब उन से कहा जाए कि आओ इस तरफ़ जो अल्लाह ने उतारा और रसूल की तरफ़ कहें हमको वह बहुत है जिस पर हमने अपने बाप दादा को पाया, क्या अगरचे उनके बाप दादा न कुछ जानें और राह पर हों,
तर्जमा और जब उनसे कहा जाए कि अल्लाह के उतारे हुए पर चलो तो कहेंगे बल्कि हम तो उस पर चलेंगे जिस पर अपने बाप दादा को पाया।
इन में और इन जैसी आयतों में इसी तक़्लीद की बुराई फ़रमाई गई है जो शरीअत के मुकाबला में जाहिल बाप दादों के हराम कामों में की जाए कि चूँकि हमारे बाप दादा ऐसा करते थे हम भी ऐसा करेंगे चाहे यह काम जाइज़ हो या ना जाइज़।
रही शरई तक़्लीद और अइम्म_ए_दीन की इताअत, इस से इन आयात का कोई तअल्लुक नहीं, इन आयातों से तक़्लीदे अइम्मा को शिर्क या हराम कहना महज़ बेदीनी है, इसका बहुत ख्याल रहे।
--------------------------------------------------------
📕 जा_अल_हक़ व ज़हक़ल_बातिल
सफ़हा न०-19-20
🖌️पोस्ट क्रेडिट ~ एस. अली. औवैसी & शाकिर अली बरेलवी
📌 इस पोस्ट के दीगर पार्ट के लिए क्लिक करिये ⬇⬇
https://MjrMsg.blogspot.com/p/ja-alhaq-hindi.html
तक़्लीद के माना और इसके अक़्साम में
-------------------------------------------------------
तक़्लीद के दो माना हैं ~
(1).एक तो मानाए लुग़वी,
(2). दूसरा शरई।
लुग़वी माना हैं गले में हार या पट्टा डालना। तक़्लीद के शरई माना यह हैं कि किसी के कहने व करने को अपने ऊपर लाज़िमे शरई जानना यह समझ कर कि उसका कलाम और उसका काम हमारे लिए हुज्जत है, क्योंकि यह शरई मुहक़्क़िक़ है ।
जैसे कि हम मसाइले शरईया में इमाम साहब का क़ौल व फ़ेअल अपने लिए दलील समझते हैं और दलाइले शरईया में 👀 नज़र नहीं करते।
हाशिया हुसामी, बाब मुताबिअत रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम में सफा: 86, पर शरह मुख़्तसरुल, मनार से नक़्ल किया।
यही इबारत नूरुल_अनवार बहस तक़्लीद में भी है, तक़्लीद के माना हैं किसी शख्स का अपने ग़ैर की इताअत करना इसमें जो इसको कहते हुए या करते हुए सुन ले यह समझ कर कि वह अहले तहक़ीक़ में से है कि बग़ैर दलील में 👀 नज़र किए हुए,
और इमाम ग़ज़ाली किताबुल_मुस्तस्फ़ा, जिल्द- दोम, सफा: 387 में फरमाते हैं ~
अत्तक़्लीदु हुवा क़बूलु क़ौलिन बिला हुज्जतिन
मुसल्लमुस सुबूत में है~
अत्तक़्लीदुल, अमलु बेक़ौलिल, ग़ैरे मिन ग़ैरे हुज्जतिन
तर्जमा वही जो ऊपर ब्यान हुआ, इस तारीफ़ से मालूम हुआ कि हुजूर अलैहिस्सलाम की इताअत करने को
तक़्लीद नहीं कह सकते क्योंकि उनका हर क़ौल व फ़ेअल दलीले शरई है, तक़्लीद में होता है दलीले शरई को न देखना,
लिहाज़ा हम हुजूर अलैहिस्सलाम के उम्मती कहलाएंगे न कि मुक़ल्लिद।
इसी तरह सहाब_ए_किराम व अइम्म_ए_दीन हुजूर अलैहिस्सलाम के उम्मती हैं न कि मुक़ल्लिद ।
इसी तरह आलिम की इताअत जो आम मुसलमान करते हैं इसको भी तक़्लीद न कहा जाएगा, क्योंकि कोई भी इन आलिमों की बात या उनके काम को अपने लिए हुज्जत नहीं बताता, बल्कि यह समझ कर उनकी बात मानता है कि यह मौलवी आदमी हैं, 📖 किताब से देख कर कह रहे होंगे, अगर साबित हो जाए कि फ़त्वा ग़लत था, किताब के ख़िलाफ़ था तो कोई भी न माने बख़िलाफ़ क़ौले इमाम अबू हनीफ़ा के कि अगर वह हदीस या कुरआन या इज्मा_ए_उम्मत को देखकर मसला फरमा दें तो भी कबूल, और अपने क़्यास से हुक्म दें तो भी कबूल होगा, यह फ़र्क़ जरूर याद रहे।
तक़्लीद दो तरह की है, तक़्लीदे शरई और ग़ैर शरई , तक़्लीदे शर ई तो शरीअत के अहकाम में किसी की पैरवी करने को कहते हैं, जैसे नमाज़ रोज़े, हज, ज़कात, वग़ैरह के मसाइल में अइम्म_ए_दीन की इताअत की जाती है
और तक़्लीदे ग़ैर शरई है दूनियावी बातों में किसी की पैरवी करना, जैसे तबीब लोग इल्मे तिब में बू अली सीना की और शाइर लोग दाग़, अमीर, या मिर्ज़ा ग़ालिब की या नहवी व सर्फी़ लोग सीबवह और ख़लील की पैरवी करते है इसी तरह हर पेशावर अपने पेशा में उस फ़न के माहिरीन की पैरवी करते हैं, यह तक़्लीदे दुनियावी है।
सूफ़िया_ए_किराम जो वज़ाइफ़ व आमाल में अपने मशाइख़ के क़ौल व फ़ेअल की पैरवी करते हैं वह तक़्लीदे दीनी तो है मगर तक़्लीदे शरई नहीं बल्कि तक़्लीद फ़ित्तरीक़त है इसलिए कि यह शर ई मसाइल हराम व हलाल में तक़्लीद नहीं, हां जिस चीज़ में तक़्लीद है वह दीनी काम है।
तक़्लीदे ग़ैर शरई अगर शरीअत के ख़िलाफ़ में है तो हराम है और अगर खिलाफे इस्लाम न हो तो जाइज़ है, बूढ़ी औरतें अपने बाप दादाओं की ईजाद की हुई शादी ग़मी की उन रस्मों की पाबन्दी करें जो ख़िलाफ़े शरीअत हैं तो हराम है,
और तबीब लोग जो तिब्बी मसाइल में बू अली सीना वग़ैरह की पैरवी करें जो कि मुख़ालिफ़े इस्लाम न हों तो जाइज़ है |
इसी पहली किस्म की हराम तक़्लीद के बारे में कुरआन करीम जगह जगह मना फ़रमाता है और ऐसी तक़्लीद करने वालों की बुराई फ़रमाता है~
तर्जमा और उसका कहना न मानो जिसका दिल हमने अपनी याद से ग़ाफ़िल कर दिया और वह अपनी ख़्वाहिश के पीछे चला, और उसका काम हद से ग़ुज़र गया,
व इन जाहदाका अला अन तुश्रिका बी मा लैसा लका बेही इल्मुन फ़ला तुतिअहुमा और अगर वह तुझ से कोशिश करें कि तू मेरा शरीक ठहरा, उसको जिसका तुझको इल्म नहीं तो उनका कहना न मान,
तर्जमा और जब उन से कहा जाए कि आओ इस तरफ़ जो अल्लाह ने उतारा और रसूल की तरफ़ कहें हमको वह बहुत है जिस पर हमने अपने बाप दादा को पाया, क्या अगरचे उनके बाप दादा न कुछ जानें और राह पर हों,
तर्जमा और जब उनसे कहा जाए कि अल्लाह के उतारे हुए पर चलो तो कहेंगे बल्कि हम तो उस पर चलेंगे जिस पर अपने बाप दादा को पाया।
इन में और इन जैसी आयतों में इसी तक़्लीद की बुराई फ़रमाई गई है जो शरीअत के मुकाबला में जाहिल बाप दादों के हराम कामों में की जाए कि चूँकि हमारे बाप दादा ऐसा करते थे हम भी ऐसा करेंगे चाहे यह काम जाइज़ हो या ना जाइज़।
रही शरई तक़्लीद और अइम्म_ए_दीन की इताअत, इस से इन आयात का कोई तअल्लुक नहीं, इन आयातों से तक़्लीदे अइम्मा को शिर्क या हराम कहना महज़ बेदीनी है, इसका बहुत ख्याल रहे।
--------------------------------------------------------
📕 जा_अल_हक़ व ज़हक़ल_बातिल
सफ़हा न०-19-20
🖌️पोस्ट क्रेडिट ~ एस. अली. औवैसी & शाकिर अली बरेलवी
📌 इस पोस्ट के दीगर पार्ट के लिए क्लिक करिये ⬇⬇
https://MjrMsg.blogspot.com/p/ja-alhaq-hindi.html