🕌 दूसरी फ़स्ल तक़्लीदे शख़्सी के बयान में 🕋
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मिश्कात किताबुल_इमारह में बहवाला मुस्लिम है कि हुजूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम फरमाते हैं~

तर्जमा जो तुम्हारे पास आवे हालांकि तुम एक शख्स की इताअत पर मुत्तफ़िक़ हो वह चाहता हो कि तुम्हारी लाठी तोड़ दे और तुम्हारी जमाअत को मुतफ़र्रिक़ कर दे तो उसको कत्ल कर दो! (सफ़ा-320)

इसमें मुराद इमाम और उलमा_ए_दीन हैं क्योंकि हाकिमे वक़्त की इताअत ख़िलाफ़े शरअ में जाइज़ नहीं है।

मुस्लिम ने किताबुल_इमारह में बाब बांधा बाब वजूबे ताअतिल_अमराए फ़ी ग़ैरे मासियतिन.यानी अमीर की इताअत ग़ैर मासियत में वाजिब है इससे मालूम हुआ कि एक ही की इताअत ज़रूरी है।

मिश्कात शरीफ़ किताबुल_बुयूअ़ बाबुल_फ़राइज़ में बरिवायते बुख़ारी है कि हज़रत अबू मूसा अशअरी ने हज़रत इब्ने मअऊद के बारे में ला तरअलूनी मादामा हाज़ल_हिबरू फ़ीकुम जब तक कि यह अल्लामा तुम में रहें मुझसे मसाइल न पूछो मालूम हुआ कि अफ़ज़ल के होते हुए मफ़्जूल की इताअत न करे और हर मुक़ल्लिद की नज़र में अपना इमाम अफ़्ज़ल होता है।

फ़त्हुल क़दीर में है-

तर्जमा जो शख्स मुसलमानों की हुकूमत का मालिक हो फिर उन पर किसी को हाकिम बनाए हालांकि जानता
हो कि मुसलमानों में इस से ज़्यादा मुस्तहिक़ और कुरआन व हदीस का जानने वाला है तो उसने अल्लाह व रसूल अलैहिस्सलाम और आम मुसलमानों की ख़्यानत की।

मिश्कात किताबुल_इमारह फ़स्ल अव्वल में है मन माता व लैसा फ़ी उनुकिही बैअतुन माता मैतता जाहीलीयतिन जो मर जाए हालांकि उसके गले में किसी की बैअत न हो, वह जहालत की मौत मरा, इसमें इमाम की बैअत यानी तक़्लीद और बैअते औलिया सब ही दाख़िल हैं, वरना बताओ फ़ी ज़माना हिन्दुस्तानी वहाबी किस सुल्तान की बैअत में हैं।

यह तो चन्द आयात व अहादीस थीं, इसके अलावा और भी पेश की जा सकती हैं, मगर इख़्तिसारन इसी पर क़नाअत की गई, अब उम्मत का अमल देखो तो तबा ताबईन के ज़माना से अब तक सारी उम्मते मरहूमा इसी तक़्लीद की आमिल है कि जो खुद मुज्तहिद न हो, वह एक मुज्तहिद की तक़्लीद करे, और इज्मा_ए_उम्मत पर अमल करना कुरआन व हदीस से साबित है और ज़रूरी है।

कुरआन फ़रमाता है~

तर्जमा और जो रसूल की मुख़ालिफ़त करे बाद इसके कि हक़ रास्ता उस पर खुल चुका और मुसलमानों की राह से जुदा रास्ता चले हम उसको उसकी हालत पर छोड़ देंगे और उसको दोज़ख़ में दाख़िल करेंगे और क्या ही बुरी जगह पलटने की है।

जिस से मालूम हुआ कि जो रास्ता आम मुसलमानों का हो उसको इख़्तियार करना फ़र्ज है और तक़्लीद पर मुसलमानों का इज्मा है।

मिश्कात बाबुल_एतसाम बिल_किताबे वस्सुन्नते सफ़ा-30 में है ~

इत्तबे_उस्सवादल_आज़मा फ़इन्नहू मन शज़्ज़ा शुज़्ज़ा फ़िन्नारे बड़े गरोह की पैरवी करो क्योंकि जो जमाअत मुस्लेमीन से अलग रहा वह अलग करके जहन्नम में भेजा जाएगा, और हदीस में आया है मा रआहुल_मुमिनूना हसनन फ़हुवा इन्दल्लाहे हसनुन जिसको मुसलमान अच्छा जाने वह अल्लाह के नज़दीक भी अच्छा है।

अब देखना यह है कि आज भी और इससे पहले भी आम मुसलमान तक़्लीदे शख़्सी ही को अच्छा जानते आए और मुक़ल्लिद ही हुए, आज भी अरब व अजम में मुसलमान तक़्लीदे शख़्सी ही करते हैं, और जो ग़ैर मुक़ल्लिद हुआ वह इज्मा का मुन्किर हुआ।

अगर इज्तेमा का एतबार न करो तो ख़िलाफ़ते सिद्दीक़ी व फ़ारूक़ी किस तरह साबित करोगे, वह भी तो इज्माए उम्मत से ही साबित हुई, यहाँ तक कि जो शख्स इन दोनों ख़िलाफ़तों में से किसी का भी इन्कार करे वह काफिर है, देखो शामी वग़ैरह, इसी तरह तक़्लीद पर भी इज्मा हुआ।

तफ्सीर ख़ाज़िन ज़ेरे आयत व कूनू मअस्सादेकीन है कि अबू बकर रज़ि अल्लाहु अन्हु ने अंसार से फ़रमाया कि कुरआन शरीफ़ ने मुहाजिरीन को सादेक़ीन कहा ऊलाइका हुमुस्सादिकून और फिर फरमाया कूनू मअस्सादेक़ीन सच्चों के साथ रहो, लिहाज़ा तुम भी अलग ख़िलाफ़त न काइम करो, हमारे साथ रहो ऐसे ही मैं ग़ैर मुक़ल्लिदों से कहता हूँ कि सच्चों ने तक़्लीद की है तुम भी उसके साथ रहो मुक़ल्लिद बनो।

अक़्ली दलाइल ~ दुनिया में इंसान कोई भी काम बग़ैर दूसरे की पैरवी के नहीं कर सकता, हर हुनर और इल्म के क़वाइद सब में उसके माहिरीन की पैरवी करना होती है,

दीन का मामला तो दुनिया से कहीं ज़्यादा मुश्किल है, इसमें भी उसके माहिरीन की पैरवी करना होगी इल्मे हदीस में भी तक़्लीद है कि फ़लां हदीस इस लिए ज़इफ़ है कि बुखा़री ने या फुलां मुहद्दीस ने फुलां रावी को ज़ईफ़ कहा है, उसका क़ौल मानना यही तो तक़्लीद है |

कुर आन की क़िरात में क़ारियों की तक़्लीद है, कि फुलां ने इस तरह इस आयत को पढ़ा है कुरआन के एराब, आयात सब में तक़्लीद ही तो है,

नमाज़ में जब जमाअत होती है तो इमाम की तक़्लीद ही सब मुक़्तदी करते हैं,

हुकूमते इस्लामी में तमाम मुसलमान एक बादशाह की तक़्लीद करते हैं,

रैल में बैठते हैं तो एक इंजन की सारी रेल वाले तक़्लीद करते हैं,

गर्ज़ेकि इंसान हर काम में मुक़ल्लिद है, और ख़्याल रहे कि इन सब सूरतों में तक़्लीदे शख़्सी है, नमाज़ के इमाम दो नहीं, बादशाह इस्लाम दो नहीं तो शरीअत के इमाम एक शख़्स दो किस तरह मुकर्रर कर सकता है।

मिश्कात किताबुल जिहाद बाब आदाबिस्सफ़र सफ़ा- 339, में है इज़ा काना सलासतुन फ़ी सफ़रिन फ़ल्यूमिरू अहदहुम जबकि तीन आदमी सफ़र में हों तो एक को अपना अमीर बना लें।

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📕 जा_अल_हक़ व ज़हक़ल_बातिल
       सफ़हा न०-29-31

🖌️पोस्ट क्रेडिट ~  एस. अली. औवैसी  &  शाकिर अली बरेलवी

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