🕌 तीसरा बाब 🕋
किस पर तक़्लीद करना वाजिब है और किस पर नहीं
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मुकल्लफ़ मुसलमान दो तरह के हैं एक मुज्तहिद, दूसरे गैर मुजाहिद।
मुज्तहिद वह है जिसमें इस कद्र इल्मी लियाक़त और क़ाबलीयत हो कि कुरआनी इशारात व राज़ों को समझ सके, और कलाम के मक़्सद को पहचान सके, इससे मसाइल निकाल सके, नासिख़ व मंसूख़ का पूरा इल्म रखता हो, इल्मे सर्फ़ व नहव व बलाग़त वग़ैरह में उसको पूरी महारत हासिल हो, अहकाम की तमाम आयतों और अहादीस पर उसकी 👀 नज़र हो, इसके अलावा ज़की और ख़ुश फ़हम हो, देखो तफ़्सीराते अहमदिया वग़ैरह
और जो कि इस दरजा पर न पहुँचा हो वह ग़ैर मज्तहिद या मुक़ल्लिद है, ग़ैर मुज्तहिद पर तक़्लीद ज़रूरी है मुज्तहिद के लिए तक़्लीद मना,
मुज्तहिद के छे:6 तब्के हैं
(1). मुज्तहिद फ़िश शरअ।
(2). मुज्तहिद फ़िल, मज़हब।
(3). मुज्तहिद फ़िल, मिसाइल।
(4). अस्हाबुत्तख़रीज।
(5). अस्हाबुत्तर्जीह।
(6). अस्हाबुत्तमीज़।
मुक़द्दमा शामी बहस तब्क़ातुल_फुक़हा,,
(1). मुज्तहिद फ़िश शरअ ~
वह हज़रात हैं जिन्होंने इज्तिहाद करने के क़वाइद बनाए जैसे चारों इमाम अबू हनीफ़ा, शाफ़ई, मालिक, अहमद बिन हंबल रज़ि अल्लाह अन्हुम अज्म ईन।
(2). मुज्तहिद फ़िल मज़हब ~
वह हज़रात हैं जो इन उसूल में तक़्लीद करते हैं, और इन उसूल से मसाइले शरईया फ़रईया खुद निकाल सकते हैं।
जैसे इमाम अबू यूसुफ़ व मुहम्मद व इब्ने मुबारक रहमतुल्लाह अज्मईन कि यह क़वाइद में हज़रत इमाम अबू हनीफ़ा रज़ि अल्लाह अन्हु के मुक़ल्लिद हैं और मसाइल में खुद मुज्तहिद।
(3). मुज्तहिद फ़िल_मसाइल ~ वह हज़रात हैं जो क़वाइद और मसाइले फरईया दोनों में मुक़ल्लिद हैं मगर वह मसाइल जिनके मुतअल्लिक़ अइम्मा की वज़ाहत नहीं मिलती उनको कुरआन व हदीस वग़ैरह दलाइल से निकाल सकते हैं जैसे इमाम तहावी और क़ाज़ी खाँ, शम्सुल, अइम्मा सरख़सी वग़ैरह।
(4). अस्हाबे तख़्रीज ~ वह हज़रात हैं तो इज्तिहाद तो बिल्कुल नहीं कर सकते, हां अइम्मा में से किसी के मुख्तसर क़ौल की तफ़्सील फ़रमा सकते हैं, जैसे इमाम करख़ी वग़ैरह।
(5). अस्हाबे तरजीह ~ वह हज़रात हैं जो इमाम साहब की चन्द रिवायात में से बाज़ को तरजीह दे सकते हैं यानी अगर किसी मसला में हज़रत इमाम अबू हनीफ़ा रज़ि अल्लाह अन्हु के दो क़ौल रिवायत में आए तो उनमें किस को तरजीह दें वह कर सकते हैं, इसी तरह जहाँ इमाम साहब और साहिबैन का इख़्तिलाफ़ हो तो किसी के क़ौल को तरजीह दे सकते है कि हाज़ा औला या हाज़ा असह वग़ैरह जैसे साहिबे कुदूरी और साहिबे हिदायह।
(6). अस्हाबे तमीज़ ~ वह हज़रात हैं जो जा़हिर मज़हब और रिवायाते नादिरह इसी तरह क़ौले ज़ईफ़ और क़वी और ज़्यादा मज़बूत में फ़र्क़ कर सकते हैं कि अक़वाले रदशुदा और रिवायाते ज़ईफ़ा को तर्क कर दें, और सही रिवायात और मोतबर क़ौल को लें, जैसे कि साहिबे कन्ज और साहिबे दुर्रे मुख़्तार वग़ैरह।
जिनमें इन छ: वस्फों में से कुछ भी न हों, वह मुक़ल्लिद महज़ हैं, जैसे हम और हमारे ज़माना के आम उलमा उनका सिर्फ यही काम है कि 📖 किताब से मसाइल देख कर लोगों को बताएं ।
हम पहले अर्ज़ कर चुके हैं कि मुज्तहिद को तक़्लीद करना हराम है, तो किसी की तक़्लीद न करेंगे और इससे
ऊपर वाले दरजा में मुक़ल्लिद होंगे जैसे इमाम अबू यूसुफ़ व मुहम्मद रहमहुल्लाहु तआला कि यह हज़रात उसूल व क़वाइद में तो इमाम आज़म रहमतुल्लाह अलैहि के मुक़ल्लिद हैं और मसाइल में चूंकि खुद मुज्तहिद हैं इसलिए उनमें मुक़ल्लिद नहीं।
हमारी इस तक़रीर से ग़ैर मुक़ल्लिद का यह सवाल भी उठ गया कि जब इमाम अबू यूसुफ़ व मुहम्मद अलैहिमर्रहमा: हन्फी़ हैं और मुक़ल्लिद हैं तो इमाम अबू हनीफ़ा रहमतुल्लाह अलैहि की जगह-जगह मुख़ालफ़त क्यों करते हैं, तो यही कहा जाएगा कि उसूल व क़वाइद में यह हज़रात मुक़ल्लिद हैं इसमें मुख़ालिफ़त नहीं करते और फ़ुरूई मसाइल में मुख़ालिफ़त करते हैं, उनमें खुद मुज्तहिद हैं वह किसी के मुक़ल्लिद नहीं।
यह सवाल भी उठ गया कि तुम बहुत से मसाइल में साहिबैन के क़ौल पर फ़तवा देते हो, और इमाम अबू हनीफ़ा रहमतुल्लाह अलैहि के क़ौल को छोड़ते हो फिर तुम हन्फ़ी कैसे, जवाब आ गया कि बाज़ दरजा के फ़ुकहा अस्हाबे तरजीह भी हैं जो चन्द क़ौले में से बाज़ को तरजीह देते हैं इसीलिए हम को उन फुकहा का तरजीह दिया हुआ जो क़ौल मिला उस पर फ़तवा दिया गया।
यह सवाल भी उठ गया कि तुम अपने को हन्फ़ी फिर क्यों कहते हो यूसुफ़ी या मुहम्मद या इब्ने मुबारकी कहो, क्योंकि बहुत सी जगह तुम उनके क़ौल पर अमल करते हो इमाम अबू हनीफ़ा का क़ौल छोड़ कर ।
जवाब यही हुआ कि चूंकि अबू यूसुफ़ व मुहम्मद व इब्ने मुबारक रहमहुमुल्लाह तआला के तमाम अक़्वाल इमाम अबू हनीफ़ा अलैहिर्रहमा, के उसुल और क़वानीन पर बने हैं, लिहाज़ा इनमें से किसी भी क़ौल को लेना दरहक़ीक़त इमाम साहब ही के क़ौल को लेना है, जैसे हदीस पर अमल दरहक़ीक़त कुर आन पर ही अमल है कि रब त आल ने इसका हुक्म दिया है।
मसलन इमाम आज़म रहमतुल्लाह अलैहि फ़रमाते हैं कि कोई हदीस सही साबित हो जाए तो वही मेरा मज़हब है, अब अगर कोई मुज्तहिद फ़िल_मज़हब कोई सही हदीस पाकर उस पर अमल करे तो वह इससे ग़ैर मुक़ल्लिद न होगा बल्कि हन्फ़ी ही रहेगा, क्योंकि उसने हदीस पर इमाम साहब के इस क़ाइदे से अमल किया,
यह पूरी बहस देखो मुक़द्दमा शामी मतलब *सहहा अनिल, इमामे इज़ा सहहल, हदीस फ़हुवा मज़हबी*
इमाम साहब के इस क़ौल का मतलब यह भी हो सकता है कि जब कोई हदीस सही साबित हुई है तो वह मेरा मज़हब बनी यानी हर मसला और हर हदीस में मैं ने बहुत जिरह क़दह और तहक़ीक़ की है, तब उसे इख़्तियार किया, चुनांचे हज़रत इमाम के यहाँ हर मसला की बड़ी छान बीन होती थी, मुज्तहिद शागिर्दों से निहायत तहक़ीक़ गुफ्तगू के बाद इख़्तियार फरमाया जाता था।
अगर यह मुख़्तसर तक़रीर ख्याल में रखी गई तो बहुत मुश्किलों को इंशाअल्लाह हल कर देगी, और बहुत काम आएगी।
कुछ ग़ैर मुक़ल्लिद कहते हैं कि हम में इज्तिहाद करने की कुव्वत है लिहाज़ा हम किसी की तक़्लीद नहीं करते, इसके लिए बहुत तवील गुफ़्तगू की ज़रूरत नहीं, सिर्फ यह दिखाना चाहता हूँ कि इज्तिहाद के लिए किस क़द्र इल्म की ज़रूरत है और इन हज़रात को वह कुव्वते इल्मी हासिल है या नहीं।
हज़रत इमाम राज़ी, इमाम ग़ज़ाली वग़ैरह इमाम तिर्मिज़ी और इमाम दाऊद वग़ैरह हुजूर ग़ौसे पाक, हज़रत बायज़ीद बुस्तामी, शाह बहा_उल_हक़ नक़्शबन्द इस्लाम में ऐसे पाए के उलमा और मशाइख़ गुज़रे कि इन पर अहले इस्लाम जिस क़द्र भी फ़ख्र करें कम है ।
मगर इन हज़रात में से कोई साहब भी मुज्तहिद न हुए बल्कि सब मुक़ल्लिद हुए, ख़्वाह इमाम शाफ़ ई के मुक़ल्लिद हों या इमाम अबू हनीफ़ा के रज़ि अल्लाहु अन्हुम अज्मईन, ज़माना मौजूदा में कौन उनकी क़ाबलीयत का है, जब उनका इल्म मुज्तहिद बनने के लिए काफ़ी न हुआ तो जिन बेचारों को अभी हदीस की 📚 किताबों के नाम लेना भी न आते हों वह किस शुमार में हैं।
एक साहब ने दावा इज्तिहाद किया था, मैंने उनसे सिर्फ इतना पूछा कि सूर:तकासुर से किस क़द्र मसाइल आप निकाल सकते हैं, और इसमें हकीकत, मजाज़, सरीह व किनाया ज़ाहिर व नस कितने हैं, इन बेचारों ने इन चीज़ों के नाम भी न सुने थे।
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📕 जा_अल_हक़ व ज़हक़ल_बातिल
सफ़हा न०-22-24
🖌️पोस्ट क्रेडिट ~ एस. अली. औवैसी & शाकिर अली बरेलवी
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किस पर तक़्लीद करना वाजिब है और किस पर नहीं
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मुकल्लफ़ मुसलमान दो तरह के हैं एक मुज्तहिद, दूसरे गैर मुजाहिद।
मुज्तहिद वह है जिसमें इस कद्र इल्मी लियाक़त और क़ाबलीयत हो कि कुरआनी इशारात व राज़ों को समझ सके, और कलाम के मक़्सद को पहचान सके, इससे मसाइल निकाल सके, नासिख़ व मंसूख़ का पूरा इल्म रखता हो, इल्मे सर्फ़ व नहव व बलाग़त वग़ैरह में उसको पूरी महारत हासिल हो, अहकाम की तमाम आयतों और अहादीस पर उसकी 👀 नज़र हो, इसके अलावा ज़की और ख़ुश फ़हम हो, देखो तफ़्सीराते अहमदिया वग़ैरह
और जो कि इस दरजा पर न पहुँचा हो वह ग़ैर मज्तहिद या मुक़ल्लिद है, ग़ैर मुज्तहिद पर तक़्लीद ज़रूरी है मुज्तहिद के लिए तक़्लीद मना,
मुज्तहिद के छे:6 तब्के हैं
(1). मुज्तहिद फ़िश शरअ।
(2). मुज्तहिद फ़िल, मज़हब।
(3). मुज्तहिद फ़िल, मिसाइल।
(4). अस्हाबुत्तख़रीज।
(5). अस्हाबुत्तर्जीह।
(6). अस्हाबुत्तमीज़।
मुक़द्दमा शामी बहस तब्क़ातुल_फुक़हा,,
(1). मुज्तहिद फ़िश शरअ ~
वह हज़रात हैं जिन्होंने इज्तिहाद करने के क़वाइद बनाए जैसे चारों इमाम अबू हनीफ़ा, शाफ़ई, मालिक, अहमद बिन हंबल रज़ि अल्लाह अन्हुम अज्म ईन।
(2). मुज्तहिद फ़िल मज़हब ~
वह हज़रात हैं जो इन उसूल में तक़्लीद करते हैं, और इन उसूल से मसाइले शरईया फ़रईया खुद निकाल सकते हैं।
जैसे इमाम अबू यूसुफ़ व मुहम्मद व इब्ने मुबारक रहमतुल्लाह अज्मईन कि यह क़वाइद में हज़रत इमाम अबू हनीफ़ा रज़ि अल्लाह अन्हु के मुक़ल्लिद हैं और मसाइल में खुद मुज्तहिद।
(3). मुज्तहिद फ़िल_मसाइल ~ वह हज़रात हैं जो क़वाइद और मसाइले फरईया दोनों में मुक़ल्लिद हैं मगर वह मसाइल जिनके मुतअल्लिक़ अइम्मा की वज़ाहत नहीं मिलती उनको कुरआन व हदीस वग़ैरह दलाइल से निकाल सकते हैं जैसे इमाम तहावी और क़ाज़ी खाँ, शम्सुल, अइम्मा सरख़सी वग़ैरह।
(4). अस्हाबे तख़्रीज ~ वह हज़रात हैं तो इज्तिहाद तो बिल्कुल नहीं कर सकते, हां अइम्मा में से किसी के मुख्तसर क़ौल की तफ़्सील फ़रमा सकते हैं, जैसे इमाम करख़ी वग़ैरह।
(5). अस्हाबे तरजीह ~ वह हज़रात हैं जो इमाम साहब की चन्द रिवायात में से बाज़ को तरजीह दे सकते हैं यानी अगर किसी मसला में हज़रत इमाम अबू हनीफ़ा रज़ि अल्लाह अन्हु के दो क़ौल रिवायत में आए तो उनमें किस को तरजीह दें वह कर सकते हैं, इसी तरह जहाँ इमाम साहब और साहिबैन का इख़्तिलाफ़ हो तो किसी के क़ौल को तरजीह दे सकते है कि हाज़ा औला या हाज़ा असह वग़ैरह जैसे साहिबे कुदूरी और साहिबे हिदायह।
(6). अस्हाबे तमीज़ ~ वह हज़रात हैं जो जा़हिर मज़हब और रिवायाते नादिरह इसी तरह क़ौले ज़ईफ़ और क़वी और ज़्यादा मज़बूत में फ़र्क़ कर सकते हैं कि अक़वाले रदशुदा और रिवायाते ज़ईफ़ा को तर्क कर दें, और सही रिवायात और मोतबर क़ौल को लें, जैसे कि साहिबे कन्ज और साहिबे दुर्रे मुख़्तार वग़ैरह।
जिनमें इन छ: वस्फों में से कुछ भी न हों, वह मुक़ल्लिद महज़ हैं, जैसे हम और हमारे ज़माना के आम उलमा उनका सिर्फ यही काम है कि 📖 किताब से मसाइल देख कर लोगों को बताएं ।
हम पहले अर्ज़ कर चुके हैं कि मुज्तहिद को तक़्लीद करना हराम है, तो किसी की तक़्लीद न करेंगे और इससे
ऊपर वाले दरजा में मुक़ल्लिद होंगे जैसे इमाम अबू यूसुफ़ व मुहम्मद रहमहुल्लाहु तआला कि यह हज़रात उसूल व क़वाइद में तो इमाम आज़म रहमतुल्लाह अलैहि के मुक़ल्लिद हैं और मसाइल में चूंकि खुद मुज्तहिद हैं इसलिए उनमें मुक़ल्लिद नहीं।
हमारी इस तक़रीर से ग़ैर मुक़ल्लिद का यह सवाल भी उठ गया कि जब इमाम अबू यूसुफ़ व मुहम्मद अलैहिमर्रहमा: हन्फी़ हैं और मुक़ल्लिद हैं तो इमाम अबू हनीफ़ा रहमतुल्लाह अलैहि की जगह-जगह मुख़ालफ़त क्यों करते हैं, तो यही कहा जाएगा कि उसूल व क़वाइद में यह हज़रात मुक़ल्लिद हैं इसमें मुख़ालिफ़त नहीं करते और फ़ुरूई मसाइल में मुख़ालिफ़त करते हैं, उनमें खुद मुज्तहिद हैं वह किसी के मुक़ल्लिद नहीं।
यह सवाल भी उठ गया कि तुम बहुत से मसाइल में साहिबैन के क़ौल पर फ़तवा देते हो, और इमाम अबू हनीफ़ा रहमतुल्लाह अलैहि के क़ौल को छोड़ते हो फिर तुम हन्फ़ी कैसे, जवाब आ गया कि बाज़ दरजा के फ़ुकहा अस्हाबे तरजीह भी हैं जो चन्द क़ौले में से बाज़ को तरजीह देते हैं इसीलिए हम को उन फुकहा का तरजीह दिया हुआ जो क़ौल मिला उस पर फ़तवा दिया गया।
यह सवाल भी उठ गया कि तुम अपने को हन्फ़ी फिर क्यों कहते हो यूसुफ़ी या मुहम्मद या इब्ने मुबारकी कहो, क्योंकि बहुत सी जगह तुम उनके क़ौल पर अमल करते हो इमाम अबू हनीफ़ा का क़ौल छोड़ कर ।
जवाब यही हुआ कि चूंकि अबू यूसुफ़ व मुहम्मद व इब्ने मुबारक रहमहुमुल्लाह तआला के तमाम अक़्वाल इमाम अबू हनीफ़ा अलैहिर्रहमा, के उसुल और क़वानीन पर बने हैं, लिहाज़ा इनमें से किसी भी क़ौल को लेना दरहक़ीक़त इमाम साहब ही के क़ौल को लेना है, जैसे हदीस पर अमल दरहक़ीक़त कुर आन पर ही अमल है कि रब त आल ने इसका हुक्म दिया है।
मसलन इमाम आज़म रहमतुल्लाह अलैहि फ़रमाते हैं कि कोई हदीस सही साबित हो जाए तो वही मेरा मज़हब है, अब अगर कोई मुज्तहिद फ़िल_मज़हब कोई सही हदीस पाकर उस पर अमल करे तो वह इससे ग़ैर मुक़ल्लिद न होगा बल्कि हन्फ़ी ही रहेगा, क्योंकि उसने हदीस पर इमाम साहब के इस क़ाइदे से अमल किया,
यह पूरी बहस देखो मुक़द्दमा शामी मतलब *सहहा अनिल, इमामे इज़ा सहहल, हदीस फ़हुवा मज़हबी*
इमाम साहब के इस क़ौल का मतलब यह भी हो सकता है कि जब कोई हदीस सही साबित हुई है तो वह मेरा मज़हब बनी यानी हर मसला और हर हदीस में मैं ने बहुत जिरह क़दह और तहक़ीक़ की है, तब उसे इख़्तियार किया, चुनांचे हज़रत इमाम के यहाँ हर मसला की बड़ी छान बीन होती थी, मुज्तहिद शागिर्दों से निहायत तहक़ीक़ गुफ्तगू के बाद इख़्तियार फरमाया जाता था।
अगर यह मुख़्तसर तक़रीर ख्याल में रखी गई तो बहुत मुश्किलों को इंशाअल्लाह हल कर देगी, और बहुत काम आएगी।
कुछ ग़ैर मुक़ल्लिद कहते हैं कि हम में इज्तिहाद करने की कुव्वत है लिहाज़ा हम किसी की तक़्लीद नहीं करते, इसके लिए बहुत तवील गुफ़्तगू की ज़रूरत नहीं, सिर्फ यह दिखाना चाहता हूँ कि इज्तिहाद के लिए किस क़द्र इल्म की ज़रूरत है और इन हज़रात को वह कुव्वते इल्मी हासिल है या नहीं।
हज़रत इमाम राज़ी, इमाम ग़ज़ाली वग़ैरह इमाम तिर्मिज़ी और इमाम दाऊद वग़ैरह हुजूर ग़ौसे पाक, हज़रत बायज़ीद बुस्तामी, शाह बहा_उल_हक़ नक़्शबन्द इस्लाम में ऐसे पाए के उलमा और मशाइख़ गुज़रे कि इन पर अहले इस्लाम जिस क़द्र भी फ़ख्र करें कम है ।
मगर इन हज़रात में से कोई साहब भी मुज्तहिद न हुए बल्कि सब मुक़ल्लिद हुए, ख़्वाह इमाम शाफ़ ई के मुक़ल्लिद हों या इमाम अबू हनीफ़ा के रज़ि अल्लाहु अन्हुम अज्मईन, ज़माना मौजूदा में कौन उनकी क़ाबलीयत का है, जब उनका इल्म मुज्तहिद बनने के लिए काफ़ी न हुआ तो जिन बेचारों को अभी हदीस की 📚 किताबों के नाम लेना भी न आते हों वह किस शुमार में हैं।
एक साहब ने दावा इज्तिहाद किया था, मैंने उनसे सिर्फ इतना पूछा कि सूर:तकासुर से किस क़द्र मसाइल आप निकाल सकते हैं, और इसमें हकीकत, मजाज़, सरीह व किनाया ज़ाहिर व नस कितने हैं, इन बेचारों ने इन चीज़ों के नाम भी न सुने थे।
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📕 जा_अल_हक़ व ज़हक़ल_बातिल
सफ़हा न०-22-24
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