🕌 बहस इल्मे ग़ैब 🕋
-------------------------------------------------------

इसमें एक मुक़द्दमा है और दो बाब और एक ख़ातमा बेमन्नेही व करमेही।

मुक़द्दमा इसमें चन्द फ़स्लें हैं।

पहली फ़स्ल: ग़ैब की तारीफ़ और इसकी क़िस्मों के बयान में

ग़ैब वह छुपी हुई चीज़ है जिसको इंसान न तो आँख, नाक, कान, वग़ैरह हवास से महसूस कर सके और न बिला दलील खुद बखुद अक़्ल में आ सके, लिहाज़ा पंजाब वाले के लिए बम्बई ग़ैब नहीं, क्योंकि वह या तो आँख से देख आया है या सुन कर कह रहा है कि बम्बई भी एक 🌆 शहर है यह हवास से इल्म हुआ, इसी तरह खानों की लज़्ज़तें और उनकी ख़ुश्बू वग़ैरह ग़ैब नहीं क्योंकि यह चीज़ें अगरचे आँख से छुपी हैं मगर दूसरे हवास से मालूम हैं।

जिन्न और मलाइका और जन्नत व दोज़ख़ हमारे लिए इस वक़्त ग़ैब हैं क्योंकि न उनको हवास से मालूम कर सकते हैं हैं और न बिला दलाइल अक़्ल से।

ग़ैब दो तरह का है, एक वह जिस पर कोई दलील क़ाइम हो सके, यानी दलाइल से मालूम हो सके, दूसरे वह जिसको दलील से भी मालूम न कर सकें।

पहले ग़ैब की मिसाल जैसे जन्नत व दोज़ख़ और ख़ुदाए पाक की जात व सिफ़ात कि आलम की चीज़ें और कुरआन की आयात देख कर उनका पता चलता है।

दूसरे ग़ैब की मिसाल जैसे क़यामत का इल्म, कि कब होगी, इंसान कब मरेगा और औरत के पेट में लड़का है या लड़की बदबख़्त है या नेक बख़्त, कि इनको दलाइल से भी मालूम नहीं कर सकते इसी तरह के ग़ैब को मफ़ातीहुल_ग़ैब कहा जाता है और इसको परवरदीगारे आलम ने फरमाया फ़ला युज़हिरु अला ग़ैबिहि अहादन इल्ला मनिर्तज़ा मिर्रुसूलिन

तफ़्सीर बैज़ावी में यूमिनूना बिल_ग़ैबे के मातहत है, ग़ैब से मुराद वह छुपी हुइ चीज़ है जिसको हवास न पा
सकें और न खुद बखुद उसको अक़्ल चाहे।

तफ़्सीरे कबीर सूर: बक़र के शुरू में इसी आयत के मातहत है,
आम मुफ़स्सेरीन का क़ौल है कि ग़ैब वह है जो हवास से छुपा हुआ हो, फिर ग़ैब की दो किस्में होती हैं, एक तो वह जिस पर दलील है, दूसरे वह जिस पर कोई दलील नहीं।

तफ़्सीरे रूहुल_ब्यान में शुरू सूर: बक़र यूमिनूना बिल, ग़ैबे के मातहत है-

तर्जमा ~ ग़ैब वह है जो हवास और अक़्ल से पूरा-पूरा छुपा हुआ हो इस तरह कि किसी ज़रिया से भी इब्तिदाअन खुल्लम-खुल्ला मालूम न हो सके।

ग़ैब की दो किस्में है, एक वह किस्म जिस पर कोई दलील न हो वही किस्म इस आयत से मुराद है कि अल्लाह तआला के पास ग़ैब की कुंजियां है दूसरी किस्म वह जिस पर दलील क़ायम हो जैसे अल्लाह तआला और उसकी सिफ़ात, वही इस जगह मुराद है।

फ़ायदा ~ रंग आँख से देखा जाता है और बू 👃 नाक से सूंघी जाती है और लज़्ज़त ज़ाबन से, आवाज़ कान 👂 से महसूस होती है, तो रंगत ज़बान व कान के लिए ग़ैब है और बू, आँख के लिए ग़ैब, अगर कोई अल्लाह का बन्दा बू और लज़्ज़त को इन शक़्लों में आँख से देख ले वह भी इल्मे ग़ैब इज़ाफ़ी है।

जैसे आमाले क़्यामत में मुख़्तलिफ़ शक्लों में नज़र आएंगे, अगर कोई इन शक्लों में यहाँ देख ले तो यह भी इल्मे ग़ैब है। हुजूर ग़ौसे पाक फरमाते हैं- कोई महीना और कोई ज़माना आलम में नहीं गुज़रता मगर वह हमारे पास होकर इजाज़त लेकर गुजरता है।

इसी तरह जो चीज़ फ़िल्हाल मौजूद न होने या बहुत दूर होने या अंधेरे में होने की वजह से नज़र न आ सके वह भी ग़ैब है और उसका जानना इल्मे ग़ैब, जैसे हुजूर अलैहिस्सलाम ने आइंदा पैदा होने वाली चीज़ों को मुलाहिज़ा फरमा लिया या हज़रत उमर रज़ि अल्लाहु अन्हु ने नहावन्द में हजरत सारिया को मदीना पाक से देख लिया।

हज़रत उमर रज़ि अल्लाहु अन्हु ने नहावन्द में हजरत सारिया को मदीना पाक से देख लिया और उन तक अपनी आवाज़ पहुँचा दी।

इसी तरह कोई पंजाब में बैठ कर मक्का मुअज़्ज़मा या दीगर दूर दराज़ मुल्कों को हाथ की हथेली की तरह देखे यह सब ग़ैब ही में दाख़िल हैं।

आलात के ज़रिए जो छुपी हुई चीज़ मालूम की जाए वह इल्मे ग़ैब नहीं मसलन किसी आला के ज़रिया से औरत के पेट का बच्चा 🐣 मालूम करते हैं, या कि टेलीफोन, 📻 रेडियो से दूर की आवाज सुन लेते हैं इसको इल्मे ग़ैब न कहेंगे क्योंकि ग़ैब की तारीफ़ में अर्ज़ कर दिया गया कि जो हवास से मालूम न हो सके, और टेलीफोन या रेडियो में से जो आवाज़ निकली वह आवाज़ हवास से मालूम होने के क़ाबिल है, आला से जो पेट के बच्चा का हाल मालूम हुआ यह भी ग़ैब का इल्म न हुआ, जबकि आला ने उसको ज़ाहिर कर दिया तो अब ग़ैब कहाँ रहा।

ख़ुलासा यह कि अगर कोई आला छुपी हुई चीज़ को ज़ाहिर कर दे फिर ज़ाहिर हो चुकने के बाद हम उसको मालूम कर लें, यह तो इल्मे ग़ैब नहीं।

--------------------------------------------------------
📕 जा_अल_हक़ व ज़हक़ल_बातिल
       सफ़हा न०-40-41

🖌️पोस्ट क्रेडिट ~  एस. अली. औवैसी  &  शाकिर अली बरेलवी

📌 इस पोस्ट के दीगर पार्ट के लिए क्लिक करिये ⬇⬇
https://MjrMsg.blogspot.com/p/ja-alhaq-hindi.html