🕌 मुक़द्देमा 🕋
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इस हदीस के हाशिया में मज्म_उल_बिहार से नक़्ल फरमाया ~
तर्जमा यह तो जाइज़ नहीं कि इस इबारत की यह मुराद हो कि कोई भी कुरआन में बग़ैर सुने हुए कुछ कलाम ही न करे। क्योंकि सहाब_ए_किराम ने कुरआन की तफ़्सीर की और आपस में बहुत तरह उनमें इख़्तिलाफ़ रहा।
और उनकी हर बात तो सुनी हुई न थी, नीज़ फिर हुजूर अलैहिस्सलाम का यह दुआ फरमाना बेकार होगा कि ऐ अल्लाह, इनको दीनी फ़िक्ह, दे और इनको तावील सिखा दे।
और हज़रत इमाम ग़जा़ली ने इहया_उल_उलूम बाबे हश्तुम में फ़स्ल चहारुम इस मक़्सद के लिए मुकर्रर की है कि कुरआन का समझना बग़ैर नक़्ल भी जाइज़ है, वह फरमाते हैं कि कुरआन के एक ज़ाहिरी मतलब हैं और एक बातिनी, उलमा ज़ाहिरी मतलब की तहक़ीक़ करते हैं और सोफ़िया, ए, किराम बातिनी की,
हज़रत अली रज़ि अल्लाहु अन्हु ने फ़रमाया कि अगर मैं चाहूं तो सूरह फ़ातिहा की तफ्सीर से 70, ऊंट भर दूँ, और हज़रत अली ने फ़रमाया कि जो शख़्स कुरआन समझ लेता है वह तमामी उलूम को ब्यान कर सकता है फिर जो हदीस में यह आया कि जो शख़्स अपनी राय से कुरआन में कहे वह ख़ताकार है।
इसका मतलब यही है कि जिन बातों का इल्म बग़ैर नक़्ल नहीं हो सकता उनको राय से ब्यान करना हराम है,
देखो इसकी पूरी बहस इहया_उल_उलूम शरीफ़ के उसी बाब में उसी फ़स्ल में और अइम्म_ए_दीन का कुरआनी आयात में बड़ा इख़्तिलाफ रहता है,
एक साहब किसी जगह वक़्फ़ करते हैं तो दूसरे और जगह, एक साहब उसी एक आयत से एक मसला निकालते हैं, दूसरे साहब उसके ख़िलाफ़ जैसे कि तोहमते ज़िना लगाने वाले की गवाही, मुतशाबिहात का इल्म वग़ैरह, तो अगर आप अपने इल्म से कलामे इलाही में बिल्कुल कलाम नहीं कर सकते, हर - हर बात के लिए नक़्ल की ज़रूरत है तो यह इख़्तिलाफ़ कैसा ?
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📕 जा_अल_हक़ व ज़हक़ल_बातिल
सफ़हा न०-17-18
🖌️पोस्ट क्रेडिट ~ एस. अली. औवैसी & शाकिर अली बरेलवी
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https://MjrMsg.blogspot.com/p/ja-alhaq-hindi.html
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इस हदीस के हाशिया में मज्म_उल_बिहार से नक़्ल फरमाया ~
तर्जमा यह तो जाइज़ नहीं कि इस इबारत की यह मुराद हो कि कोई भी कुरआन में बग़ैर सुने हुए कुछ कलाम ही न करे। क्योंकि सहाब_ए_किराम ने कुरआन की तफ़्सीर की और आपस में बहुत तरह उनमें इख़्तिलाफ़ रहा।
और उनकी हर बात तो सुनी हुई न थी, नीज़ फिर हुजूर अलैहिस्सलाम का यह दुआ फरमाना बेकार होगा कि ऐ अल्लाह, इनको दीनी फ़िक्ह, दे और इनको तावील सिखा दे।
और हज़रत इमाम ग़जा़ली ने इहया_उल_उलूम बाबे हश्तुम में फ़स्ल चहारुम इस मक़्सद के लिए मुकर्रर की है कि कुरआन का समझना बग़ैर नक़्ल भी जाइज़ है, वह फरमाते हैं कि कुरआन के एक ज़ाहिरी मतलब हैं और एक बातिनी, उलमा ज़ाहिरी मतलब की तहक़ीक़ करते हैं और सोफ़िया, ए, किराम बातिनी की,
हज़रत अली रज़ि अल्लाहु अन्हु ने फ़रमाया कि अगर मैं चाहूं तो सूरह फ़ातिहा की तफ्सीर से 70, ऊंट भर दूँ, और हज़रत अली ने फ़रमाया कि जो शख़्स कुरआन समझ लेता है वह तमामी उलूम को ब्यान कर सकता है फिर जो हदीस में यह आया कि जो शख़्स अपनी राय से कुरआन में कहे वह ख़ताकार है।
इसका मतलब यही है कि जिन बातों का इल्म बग़ैर नक़्ल नहीं हो सकता उनको राय से ब्यान करना हराम है,
देखो इसकी पूरी बहस इहया_उल_उलूम शरीफ़ के उसी बाब में उसी फ़स्ल में और अइम्म_ए_दीन का कुरआनी आयात में बड़ा इख़्तिलाफ रहता है,
एक साहब किसी जगह वक़्फ़ करते हैं तो दूसरे और जगह, एक साहब उसी एक आयत से एक मसला निकालते हैं, दूसरे साहब उसके ख़िलाफ़ जैसे कि तोहमते ज़िना लगाने वाले की गवाही, मुतशाबिहात का इल्म वग़ैरह, तो अगर आप अपने इल्म से कलामे इलाही में बिल्कुल कलाम नहीं कर सकते, हर - हर बात के लिए नक़्ल की ज़रूरत है तो यह इख़्तिलाफ़ कैसा ?
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सफ़हा न०-17-18
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