🕌 पांचवा बाब 🕋
तक़्लीद पर एतराज़ात और जवाबात के बयान में
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सवाल (8) इमामे आज़म को हदीस नहीं आती थी, इसलिए उनकी रिवायात बहुत कम हैं और जो हैं वह सब ज़ईफ़।
जवाब ~ इमाम आज़म बहुत बड़े मुहद्दिस थे, बग़ैर हदीस दानी इस क़दर मसाइल कैसे इस्तिबात (निकल) हो सकते थे उनकी किताब मुसनद अबू हनीफ़ा और इमाम मुहम्मद की किताब मुअत्ता इमाम मुहम्मद से उनकी हदीस दानी मालूम होती है ।
हज़रत सिद्दीक़े अक़बर की रिवायात बहुत कम मिलती हैं।
तो क्या वह मुहद्दिस न थे, कमी रिवायत एहतियात की वजह से है, इमाम साहब की तमाम रिवायात सहीह हैं, क्योंकि उनका ज़माना हुज़ूर से बहुत क़रीब है, बाद में कुछ रिवायात में जुअफ़ पैदा हुआ, बाद का जुअफ़ हज़रत इमाम को नुक़सानदेह नहीं, जिस क़दर सनदें बढ़ी जुअफ़ भी पैदा हुआ।
लतीफ़ा ~ बाज़ लोग यह भी कहते हैं कि तुम कहते हो कि चारों मज़हब हक़ हैं यह किस तरह हो सकता है, हक़ तो सिर्फ एक ही होगा, इमाम अबू हनीफ़ा फरमाते हैं कि इमाम के पीछे सूर_ए_फ़ातिहा पढ़ना मक्रुहे तहरीमी है, इमाम शाफ़ई फरमाते हैं कि वाजिब है तो या तो वाजिब होगी या मक्रुह, दोनों मसले सही किस तरह हो सकते हैं?
जवाब ~ यह है कि हक़ के मानी यहाँ सही या कि वाक़्या के मुवाफ़िक़ नहीं है, बल्कि मतलब यह है कि चारों
मज़हब में से किसी की पैरवी कर लो खुदा के यहाँ पकड़ न होगी क्योंकि मुज्तहिद की ख़ता भी माफ़ है।
अमीर मुआविया और मौला अली, इसी तरह आइशा सिद्दीक़ा और हज़रत अली रज़ि अल्लाहु अन्हुम अज्मईन में जंग भी हुई और हक़ पर एक ही साहब थे, मगर दोनों को हक़ पर कहा जाता है, यानी किसी की पकड़ अल्लाह के यहाँ नहीं होगी ।
जंगल में एक शख्स को ख़बर नहीं कि किब्ला किधर है, उसने अपनी राय से चार रकाअत चार तरफ़ पढ़ी, क्योंकि राय बदलती रही, यह भी मुंह फ़ेरता रहा, किब्ला तो एक ही तरफ था, मगर नमाज़ सहीह हो गई, चारों किब्ला दुरुस्त है।
बल्कि मुज्तहिद ख़ता भी करे तो भी एक सवाब पाता है। कुरआन करीम ने हज़रत दाऊद अलैहिस्सलाम की इज्तिहादी ख़ता और हज़रत सुलेमान अलैहिस्सलाम की दुरुस्ती राय ब्यान फरमाई, मगर किसी पर इताब न फ़रमाया, बल्कि फ़रमाया~ कुल्ला आतैना हुक्मन व इल्मन ।
मिश्कात किताबुल_इमारह बाबुल_अमल फ़िल_कज़ाए सफा 324 में है~
इज़ा हकमल_हाकिमु फ़ज्तहदा व असाबा फ़लहू व अज्राने व इज़ा हकमा फ़इज्तहदा फ़अख़्त आ फ़लहू अज्रुन वाहिदुन ,,मुत्तफ़क़ अलैह,, जबकि हाकिम फ़ैसला करे तो इज्तिहाद करे और सहीह करे तो दो सवाब हैं, और जब फ़ैसला करे और इज्तिहाद करे और ख़ता करे तो उसको एक सवाब है।
इससे यह एतराज भी उठ गया कि अगर शाफ़ई रफ़ा यदैन करे तो ठीक है और अगर ग़ैर मुक़ल्लिद करे तो जुर्म है,
क्योंकि शाफ़ई हाकिमे शरअ मुज्तहिद से फ़ैसला करा कर रफ़ा यदैन कर रहा है, और अगर ग़लती करता है तो भी माफ़ है और चूंकि ग़ैर मुक़ल्लिद ने किसी मुज्तहिद से फ़ैसला न कराया, लिहाज़ा अगर सही भी करता है तो भी ख़ताकार है।
जैसे कि आज हाकिम के बगैर फ़ैसला कोई शख्स खुद ही क़ानून को हाथ में लेकर कोई काम करता है मुजरिम है, लेकिन अगर हाकिम कचहरी से फ़ैसला करा कर वही काम किया तो उस पर जुर्म नहीं, हाकिम जवाब देह है, अगर हाकिम ने ग़लती की तो भी उसकी पकड़ नहीं।
देखो हुजूर अलैहिस्सलाम ने बदर के क़ैदियों से महज़ क़्यास पर फ़िदिया लिया, फिर आयत इसके ख़िलाफ़ आई, मालूम हुआ कि इस क़्यास से रब राज़ी नहीं मगर वह फ़िदिया का रुपया वापस न कराया गया, बल्कि इरशाद हुआ कि फ़कुलू मिम्मा गनिम्तुम हलालन तैय्यिबन वह माल खा लो हलाल तैय्यिब, मालूम हुआ कि ख़ताए इज्तिहादी पर कोई पकड़ नहीं।
ख़ातिमा, क़्यास की बहस में शरीअत के दलाइल चार हैं, कुरआन, हदीस, इज्मा_ए_उम्मत और क़्यास, इज्मा के दलाइल तो हम ब्यान कर चुके कि कुरआन का भी हुक्म है और हदीस का भी कि आम जमाअते मुस्लेमीन के साथ रहो, जो इससे अलग हुआ वह जहन्नमी है।
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📕 जा_अल_हक़ व ज़हक़ल_बातिल
सफ़हा न०-36-37
🖌️पोस्ट क्रेडिट ~ एस. अली. औवैसी & शाकिर अली बरेलवी
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तक़्लीद पर एतराज़ात और जवाबात के बयान में
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सवाल (8) इमामे आज़म को हदीस नहीं आती थी, इसलिए उनकी रिवायात बहुत कम हैं और जो हैं वह सब ज़ईफ़।
जवाब ~ इमाम आज़म बहुत बड़े मुहद्दिस थे, बग़ैर हदीस दानी इस क़दर मसाइल कैसे इस्तिबात (निकल) हो सकते थे उनकी किताब मुसनद अबू हनीफ़ा और इमाम मुहम्मद की किताब मुअत्ता इमाम मुहम्मद से उनकी हदीस दानी मालूम होती है ।
हज़रत सिद्दीक़े अक़बर की रिवायात बहुत कम मिलती हैं।
तो क्या वह मुहद्दिस न थे, कमी रिवायत एहतियात की वजह से है, इमाम साहब की तमाम रिवायात सहीह हैं, क्योंकि उनका ज़माना हुज़ूर से बहुत क़रीब है, बाद में कुछ रिवायात में जुअफ़ पैदा हुआ, बाद का जुअफ़ हज़रत इमाम को नुक़सानदेह नहीं, जिस क़दर सनदें बढ़ी जुअफ़ भी पैदा हुआ।
लतीफ़ा ~ बाज़ लोग यह भी कहते हैं कि तुम कहते हो कि चारों मज़हब हक़ हैं यह किस तरह हो सकता है, हक़ तो सिर्फ एक ही होगा, इमाम अबू हनीफ़ा फरमाते हैं कि इमाम के पीछे सूर_ए_फ़ातिहा पढ़ना मक्रुहे तहरीमी है, इमाम शाफ़ई फरमाते हैं कि वाजिब है तो या तो वाजिब होगी या मक्रुह, दोनों मसले सही किस तरह हो सकते हैं?
जवाब ~ यह है कि हक़ के मानी यहाँ सही या कि वाक़्या के मुवाफ़िक़ नहीं है, बल्कि मतलब यह है कि चारों
मज़हब में से किसी की पैरवी कर लो खुदा के यहाँ पकड़ न होगी क्योंकि मुज्तहिद की ख़ता भी माफ़ है।
अमीर मुआविया और मौला अली, इसी तरह आइशा सिद्दीक़ा और हज़रत अली रज़ि अल्लाहु अन्हुम अज्मईन में जंग भी हुई और हक़ पर एक ही साहब थे, मगर दोनों को हक़ पर कहा जाता है, यानी किसी की पकड़ अल्लाह के यहाँ नहीं होगी ।
जंगल में एक शख्स को ख़बर नहीं कि किब्ला किधर है, उसने अपनी राय से चार रकाअत चार तरफ़ पढ़ी, क्योंकि राय बदलती रही, यह भी मुंह फ़ेरता रहा, किब्ला तो एक ही तरफ था, मगर नमाज़ सहीह हो गई, चारों किब्ला दुरुस्त है।
बल्कि मुज्तहिद ख़ता भी करे तो भी एक सवाब पाता है। कुरआन करीम ने हज़रत दाऊद अलैहिस्सलाम की इज्तिहादी ख़ता और हज़रत सुलेमान अलैहिस्सलाम की दुरुस्ती राय ब्यान फरमाई, मगर किसी पर इताब न फ़रमाया, बल्कि फ़रमाया~ कुल्ला आतैना हुक्मन व इल्मन ।
मिश्कात किताबुल_इमारह बाबुल_अमल फ़िल_कज़ाए सफा 324 में है~
इज़ा हकमल_हाकिमु फ़ज्तहदा व असाबा फ़लहू व अज्राने व इज़ा हकमा फ़इज्तहदा फ़अख़्त आ फ़लहू अज्रुन वाहिदुन ,,मुत्तफ़क़ अलैह,, जबकि हाकिम फ़ैसला करे तो इज्तिहाद करे और सहीह करे तो दो सवाब हैं, और जब फ़ैसला करे और इज्तिहाद करे और ख़ता करे तो उसको एक सवाब है।
इससे यह एतराज भी उठ गया कि अगर शाफ़ई रफ़ा यदैन करे तो ठीक है और अगर ग़ैर मुक़ल्लिद करे तो जुर्म है,
क्योंकि शाफ़ई हाकिमे शरअ मुज्तहिद से फ़ैसला करा कर रफ़ा यदैन कर रहा है, और अगर ग़लती करता है तो भी माफ़ है और चूंकि ग़ैर मुक़ल्लिद ने किसी मुज्तहिद से फ़ैसला न कराया, लिहाज़ा अगर सही भी करता है तो भी ख़ताकार है।
जैसे कि आज हाकिम के बगैर फ़ैसला कोई शख्स खुद ही क़ानून को हाथ में लेकर कोई काम करता है मुजरिम है, लेकिन अगर हाकिम कचहरी से फ़ैसला करा कर वही काम किया तो उस पर जुर्म नहीं, हाकिम जवाब देह है, अगर हाकिम ने ग़लती की तो भी उसकी पकड़ नहीं।
देखो हुजूर अलैहिस्सलाम ने बदर के क़ैदियों से महज़ क़्यास पर फ़िदिया लिया, फिर आयत इसके ख़िलाफ़ आई, मालूम हुआ कि इस क़्यास से रब राज़ी नहीं मगर वह फ़िदिया का रुपया वापस न कराया गया, बल्कि इरशाद हुआ कि फ़कुलू मिम्मा गनिम्तुम हलालन तैय्यिबन वह माल खा लो हलाल तैय्यिब, मालूम हुआ कि ख़ताए इज्तिहादी पर कोई पकड़ नहीं।
ख़ातिमा, क़्यास की बहस में शरीअत के दलाइल चार हैं, कुरआन, हदीस, इज्मा_ए_उम्मत और क़्यास, इज्मा के दलाइल तो हम ब्यान कर चुके कि कुरआन का भी हुक्म है और हदीस का भी कि आम जमाअते मुस्लेमीन के साथ रहो, जो इससे अलग हुआ वह जहन्नमी है।
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