✳️ क्या किसी काफिर को काफिर नहीं कहना चाहिये आईये क़ुर्आन से ही पूछ लेते हैं, अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त इरशाद फरमाता है ~
कंज़ुल ईमान - तुम फरमाओ ऐ काफिरों !
📕 पारा 30, सूरह काफिरून, आयत 1
कंज़ुल ईमान - बेशक ज़रूर उन्होंने कुफ्र की बात कही और इस्लाम में आकर काफिर हो गये ।
📕 पारा 10, सूरह तौबा, 74
कंज़ुल ईमान - बहाने ना बनाओ तुम काफिर हो चुके मुसलमान होकर।
📕 पारा 10, सूरह तौबा, आयत- 66
मगर आज कुछ बेवकूफ लोग हमसे ये कहते नज़र आते हैं कि किसी काफिर को काफिर ना कहना चाहिये कि पता नहीं वो कब मुसलमान हो जाये, ऐसा ऐतराज़ करने वाला बड़ा जाहिल है क्योंकि अगर काफिर को काफिर ना कहने की यही दलील है तब तो किसी मुसलमान को भी मुसलमान ना कहना चाहिये पता नहीं कि वो कब काफिर हो जाये माज़ अल्लाह,
आखिर वहाबी मुसलमान के घर पैदा होकर भी काफिर हो ही रहा है, और फिर देखिये कि रब क़ुर्आन मुक़द्दस में काफिर को तो काफिर कह ही रहा है मगर उन लोगों को भी काफिर कह रहा है जिन्हे खुद मुसलमान कहा यानि मुसलमान तब ही तक मुसलमान कहलायेगा जब तक कि ईमान पर क़ायम हो और जिस दिन वो ईमान से फिरा तो काफिर ही कहलायेगा, पर आज कुछ लोगों ने ईमान को अपने बाप की जायदाद समझ लिया है कि चाहे माज़ अल्लाह खुदा व रसूल और उसके वलियों की शान में लाख गुस्ताखी करो मगर जायदाद की तरह अपना ईमान कहीं जा नहीं रहा है कि वो तो बाप की जागीर है उसे तो हासिल कर ही लेंगे, ऐसे लोगों के लिए क़ुर्आन की कुछ आयतें पेश करता हूं, मौला तआला इरशाद फरमाता है-
कंज़ुल ईमान - क्या लोग इस घमण्ड में हैं कि इतना कह लेने पर छोड़ दिये जायेंगे कि हम ईमान लाये और उनकी आज़माईश ना होगी ।
📕 पारा 20, सूरह अन्कबूत, आयत 1
कंज़ुल ईमान - जो कुछ आमाल उन्होंने किये हमने सब बरबाद कर दिये।
📕 पारा 19, सूरह फुरक़ान, आयत 23
कंज़ुल ईमान - अमल करें मशक़्क़त झेलें और बदला क्या होगा ये कि भड़कती आग में बैठेंगे ।
📕 पारा 30, सूरह ग़ाशिआ, आयत 3-4
अमल करें मशक्क़त झेलें यानि रात-रात भर जागकर नमाज़ पढ़ें, दिन को भूखा प्यासा रहकर रोज़ा रखें,
लाखों रुपये खर्च करके हज पर जायें, सालों साल ज़कात अदा करें और आखिर में क्या मिलेगा आग-आग और सिर्फ आग मतलब साफ है कि सिर्फ कह लेने भर से कोई मुसलमान नहीं हो जाता कि मैं मुसलमान हूं बल्कि मुसलमान होने के लिए वो अक़ीदा भी रखना पड़ता है जो सिर्फ और सिर्फ सुन्नियों के पास है लिहाज़ा जो सुन्नी है वही मुसलमान है और जो सुन्नी नहीं वो मुसलमान भी नहीं और जो मुसलमान नहीं वो यक़ीनन काफिर है और उसे काफिर ही कहा जायेगा, क्योंकि ये भी एक अक़ीदा ही है कि जिस तरह मुसलमान को मुसलमान जानना ज़रूरियाते दीन से है उसी तरह काफिर को काफिर जानना भी ज़रूरियाते दीन है।
फुक़्हा - जो किसी काफिर के कुफ्र में शक़ करे वो भी काफिर है ।
📕 रद्दुल मुख्तार, जिल्द 3, सफह 317
लीजिये बात पूरी हो गई कि काफिर को काफिर ही माना जायेगा, समझा जायेगा, कहा जायेगा और अगर कोई किसी काफिर के कुफ्र में शक़ करेगा तो खुद काफिर हो जायेगा और यही राजेह है, अब चलते चलते इन वहाबियों के इमामों का भी कुछ क़ौल पढ़ लीजिये, अशरफ अली थानवी ने लिखा-
वहाबी - कुफ्र के लिए एक ही बात काफी है और ऐसा शख्स भी काफिर है जो कुफ्र को कुफ्र ना कहे।
📕 इफादाते यौमिआ, जिल्द 6, सफह 24/318
रशीद अहमद गंगोही ने लिखा कि
वहाबी - शरीअत का हुक्म है कि काफिर को काफिर कहो हम तो जिस पर अलामाते कुफ्र देखेंगे उसे काफिर ही कहेंगे।
📕 तज़किरातुर्रशीद, जिल्द 2, सफह 196
★ हम भी वही कर रहे हैं कि जिसके अंदर ज़रा भी कुफ्र का असर देखते हैं उसको छोड़ते नहीं पहले तो समझाते हैं अगर समझ गया तो बहुत अच्छा वरना कुफ्र का फतवा लगाकर उसका टोटली बाईकाट कर देते हैं जैसा कि वहाबी, देवबंदी, क़ादियानी, खारजी, राफजी, अहले-हदीस, जमाते-इस्लामी व दीगर बद-दीन वालों की गर्दनों पर सुन्नियों की तलवार हमेशा चलती ही रहती है और क़यामत तक चलती रहेगी इन शा अल्लाह तआला
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🖌️पोस्ट क्रेडिट ~ नौशाद अहमद ज़ेब रज़वी (ज़ेब न्यूज़)
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