🕌 अपने ही हाथों अपने मज़हब का ख़ून 🕋

ऐसा मालूम होता है कि यह किस्सा बयान कर चुकने के बाद मौलवी मनाज़िर अहसन गीलानी को अचानक याद आया कि हमारे यहाँ तो अरवाहे अम्बिया तक के लिए भी ज़िन्दों की मदद करने का कोई तसव्वुर नहीं है बल्कि अपने मशरब में हम इस तरह के तसव्वुरात को "मुश्रेकाना अकाएद" से ताबीर करते आ रहे हैं फिर इतने वाज़ेह मुसलसल और मुतवातिर इन्कार के बाद अपने मौलाना के ज़रिए ग़ैबी इमदाद का यह किस्सा क्यों कर निबाहा जा सकेगा।

यह सोच कर बजाए इसके कि अपने मसलक को बचाने के लिए मौसूफ़ इस भसनूई ( बनावटी) किस्से का इन्कार करते उन्होंने "अपने मौलाना" का खुदाइ एख़्तियार साबित करने के लिए अपने अस्ले मज़हब ही का इन्कार कर दिया।

मैं यकीन करता हूं कि मज़हबी इंहिराफ़ की ऐसी शर्मनाक मिसाल किसी फ़िर्के की तारीख़ में शायद ही मिल
सकेगी वाकिआ बयान कर चुकने के बाद किताब के हाशिया में मौसूफ़ इर्शाद फ़रमाते हैं। हैरत में डूब कर यह "अनकही" पढ़िए और इलम व दियानत का एक ताज़ा ख़ून और मुलाहेज़ा फ़रमाईए लिखते हैं.....। ।।।।।।।।

📕 ज़लज़ला, सफ़हा न०-30

🖌️पोस्ट क्रेडिट ~ एस-अली।औवैसी

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