🕌 आवाज़ दो इन्साफ़ को इन्साफ़ कहाँ है ?अपनी तकज़ीब की एक शर्मनाक मिसाल...... 🕋
वाज़ेह रहे कि दारुल उलूम देवबन्द के "वाकिआ निज़ा"और किस्सए मुनाज़ेरा में नानौतवी साहेब के मुतअल्लिक़ जो रिवायतें नकल की गई हैं उन तमाम वाकिआत में ज़ाहरी सिलसिलए अस्बाब से अलग ग़ैबी तौर पर ही उनकी इमदाद व तसर्रुफ़ का अकीदा ज़ाहिर किया गया है ।
अब तो इस के शिर्क होने में कोई दकीका नहीं रह जाता।
इदारिये (editorail) की इबारत जिस हिस्से पर तमाम हुई है वह भी ख़ासी तवज्जह से पढ़ने के काबिल है। कलम की नोक से रौशनाई की जगह ज़हर टपक रहा है। तहरीर फ़रमाते हैं:-
"आप मुसलमान कहलाने वाले कुबूरियों और ताज़िया परस्तों को देख लीजिए शैतान ने मुश्रेकाना आमाल को
उनके दिलों में ऐसा उतार दिया है कि वह इस सिलसिले में कुरआन व हदीस की कोई बात सुनने के रवादार नहीं।
मैं तो इन्ही लोगों को देख कर अगली उम्मतों के शिर्क को समझता हूं। अगर मुसलमानों में यह लोग न होते तो वाकिआ यह है कि मेरे लिए अगली उम्मतों के शिर्क को समझना बङा मुश्किल होता। "
#अल्फुर्कान, सफा: 30
📕 ज़लज़ला, सफ़हा न०-34, 35
🖌️पोस्ट क्रेडिट ~ एस-अली।औवैसी
🔴इस पोस्ट के दीगर पार्ट के लिए क्लिक करिये ⬇
https://MjrMsg.blogspot.com/p/zalzala.html
वाज़ेह रहे कि दारुल उलूम देवबन्द के "वाकिआ निज़ा"और किस्सए मुनाज़ेरा में नानौतवी साहेब के मुतअल्लिक़ जो रिवायतें नकल की गई हैं उन तमाम वाकिआत में ज़ाहरी सिलसिलए अस्बाब से अलग ग़ैबी तौर पर ही उनकी इमदाद व तसर्रुफ़ का अकीदा ज़ाहिर किया गया है ।
अब तो इस के शिर्क होने में कोई दकीका नहीं रह जाता।
इदारिये (editorail) की इबारत जिस हिस्से पर तमाम हुई है वह भी ख़ासी तवज्जह से पढ़ने के काबिल है। कलम की नोक से रौशनाई की जगह ज़हर टपक रहा है। तहरीर फ़रमाते हैं:-
"आप मुसलमान कहलाने वाले कुबूरियों और ताज़िया परस्तों को देख लीजिए शैतान ने मुश्रेकाना आमाल को
उनके दिलों में ऐसा उतार दिया है कि वह इस सिलसिले में कुरआन व हदीस की कोई बात सुनने के रवादार नहीं।
मैं तो इन्ही लोगों को देख कर अगली उम्मतों के शिर्क को समझता हूं। अगर मुसलमानों में यह लोग न होते तो वाकिआ यह है कि मेरे लिए अगली उम्मतों के शिर्क को समझना बङा मुश्किल होता। "
#अल्फुर्कान, सफा: 30
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